पुष्ट एवं दीर्घजीवी संतान के निर्माण योग्य स्थिति प्राप्त करने के लिए लगभग सन्तानोत्पत्ति के बाद पांच साल तक संयम से रहना उचित है।
शिशु के स्तनपान छोड़ते ही सम्भोग करना 'अधम' है। स्तनपान छोड़ने के बाद उतने ही समय के बाद सम्भोग करना 'मध्यम' है और पूरे पांच साल बीतने पर संभोग करना 'सर्वश्रेष्ठ ' है। इतना ना हो सके तो कम से कम पहली संतान के बाद दूसरी संतान उत्पन्न होने में बीच का समय पांच साल का तो होना ही चाहिए। ऐसा करने से दस महीने पूर्व ही विषय-सम्भोग किया जा सकता है।
संयमशील माता-पिता के पवित्र उद्देश्य से प्रेरित संसर्ग से ही सत्-संतान की उत्पत्ति संभव है। सोलह से पैंतीस वर्ष तक की उम्र तक संयम का पालन करते हुए तीन-चार संतान हो जाए तो पर्याप्त है। फिर बहुत सी अयोग्य संतान होने की अपेक्षा सुयोग्य एक-दो संतान का होना भी बहुत महत्व रखता है।
उदाहरणार्थ | महाराज राघवेन्द्र श्री रामचन्द्र जी अपनी माँ के एक ही थे। भीष्म एक ही थे। शंकराचार्य एक ही थे। पर उनका कितना महत्व है। महत्ता गुणों में हैं, संख्या में नहीं। महत्त्वपूर्ण और सफल संतान तो वही है जो भगवान की भक्त है। ब्याती है- सुपुत्र नहीं जनती।
पुत्रवती जुवती जग सोइ। रघुपति भगतु जासु सुतु होई ॥
नतरु बाँझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत तें हित जानी॥
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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