Published By:धर्म पुराण डेस्क

महाशिव के महारूप 

भारतीय संस्कृति का आधार है उसका विश्वात्मवाद जिसका प्रारम्भ इस प्रार्थना से होता है कि दुर्जन सज्जन हो जाएं, सज्जन शांति पाएं, शांत मुक्ति पाएं और जो मुक्त हो गए हैं वे दूसरों को भी मुक्ति की राह सुझाएं, सबके सुख की, सबके कल्याण की कामना करने वाली भारतीय संस्कृति का यह शिव भाव लगभग उतना ही पवित्र और निश्छल है जितना कि भारतीय दर्शन, चितन, कला, साहित्य एवं लोक परम्भरा में सुगंध की तरह धुले शिव जिनके ईशान, रूद्र, ब्राशुतोष, पशुपति आदि न जाने कितने नाम है अगर हम शिव के स्वरूप के विभिन्न पहलुओं पर विचार पाएंगे कि शिव की कल्पना दार्शनिक आधार है जिसके बीज वैदिक युग में ही पड़ने प्रारम्भ हो गए थे।

ऋग्वेद के ऋषि रूद्र से प्रार्थना करते हैं कि वे अपने श्रायुधों को उनसे दूर रखें, अथर्ववेद तक भाते-प्राते रूद्र को महादेव कहा गया। यहां समस्त तारे और चन्द्रमा रूद्र के नियंत्रण में हैं। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार रूद्र उषा के पुत्र थे जब वे प्रजापति बने तो उन्हें एक नया नाम मिला अशनि या वज्र । 

ब्राह्मण ग्रंथ से रूद्र का उत्कर्ष प्रारम्भ होता है, श्वेताश्वतर उपनिषद तक आते- आते उनके ईश, महेश्वर शिव और ईशान नाम भी हो गए। यहीं मोक्ष वेषी योगी, शिव का ध्यान करते हैं क्योंकि वे ही उपनिषद सृष्टा और ब्रह्मा हैं, श्वेताश्वतर में पहली बार शिव की कल्पना एक विराट रूप धारण करती है जहां यह उल्लेख एक सर्जन शक्ति के रूप में हुधा है जो पुरूष अथवा परब्रह्म से मेल खाती है जो विगुणमयी है, और प्रकृति को क्रियाशील बनाकर केवल प्रेक्षक के रूप में स्थिर रहती है। यहां प्रकृति को माया और शिवनामी शक्ति की मायी कहा गया है। प्रकृति पुरुष की इस कल्पना में जीव को मायाबद्ध माना गया है, जो सांख्य एवं योग द्वारा पुनः पुरुष अथवा ब्रह्मा से साक्षात करता है।

उपनिषदों के बाद सूत्रकाल में भी शिव, स्कन्द एवं विनायक के साथ धर्म और गृह सूत्र में प्रार्थनाओं का विषय रहे । वैदिक, आर्य और सिन्धु घाटी में विद्यमान सभ्यता के तालमेल से रूद्र का श्रम्बिका के साथ ग्रहात्म्य हुथा। इस तरह इस देश में शक्ति साधना का सूपात हुआ हालाँकि इसी के साथ यह भी सच है कि श्वेताश्वतर और अथर्वशिरस उपनिषद ने भक्ति के बीज भी बो दिए थे जो पाणिनि अष्टाध्यायी में रूद्र अपनी उपाधियों के साथ तो विद्यमान है ही, भक्त और भक्ति भी है, जिनका अधिक विवरण माहेश्वर सूत्र में मिलता है, माहेश्वर सूत्र शिव द्वारा व्यक्त किए गए माने जाते है। 

अष्टाध्यायों के बाद कौटिल्य के अर्थ-शास्त्र में शिव अन्य देवी-देवताओं के साथ भारतीय संस्कृति में और गहरे उत्तरते हैं क्योंकि यहां दुर्ग के भीतर बने मन्दिरों में उनका स्पष्ट उल्लेख है इस देश के दो महाख्यान रामायण और महाभारत में शिव की उपासना उनके रौद्र रूप से सौम्य रूप को उन्मुख होती है। रामायण में महादेव, महेश्वर और वयम्बक श्रादि कई पर्यायवाची उपाधियों के साथ शिव सब प्राणियों की उर्जा बन जाते हैं। यहां यह ध्यातव्य है कि शिव का केशर नाम ब्राह्मण संस्कृति के समा नान्तर बहने वाली श्रमण संस्कृति से प्राया श्रमण संस्कृति के ऋषभदेव जी कहां केशी उपाधि से युक्त हैं शिव का केशी रूप रामायण में गंगावतरण की कथा के माध्यम से स्पष्ट हुआ है जहां शिव की प्रसन्न करने का सर्वाधिक कारक उपाय तपश्चर्या है हालांकि इसी के साथ यह भी सच है कि तपश्चर्या और योग भारतीय संस्कृति में स्वतंत्र विज्ञान के रूप में विकसित हुए। 

ईसा से दो शती पूर्व हुए पतंजलि ने अपने ग्रंथ में शिव के अनेक नामों का उल्लेख किया है। रामायण में शिवोपासना तो प्रशस्त है ही वहां स्वयं शिव को भी योगाभ्यास करते हुए दिखाया गया है। केत अतिवद की उमा हेमवती, यहां आते- श्राते रूद्रपत्नी के रूप में अब केवल उमा रह गई है जो शिव के ही साथ जीव पर अपनी कृपा बरसाती है। 

महाभारत में शिव का कल्याणकारी रूप "द्रोणपर्व" में वर्णित है बन एवं कर्ण पर्व में भी शिव वरदाय देवता के रूप में स्थित है। अर्जुन ने तप करके उनसे पाशपत अस्त्र पाया था। नारायणीय पर्व में उल्लिखित अनेक धार्मिक मतों में पाशयत भी एक है। माधव ने अपने सर्वदर्शन संग्रह में पाशुपत मत को नकुलीश पाशुपत कहा है, साथ ही उसके पांच सिद्धांतों की विषद व्याख्या की है। 

यहां शिव को केन्द्र में रखकर पनपने वाले अन्य सम्प्रदायों का जिक्र भी जरूरी है जिनमें सब से पहले नाम लिया जाता है शैव सिद्धांत का शैव सिद्धांत में चार पदों और तीन पदार्थों का प्रतिपादन है- चार पाद है विद्या, क्रिया योग और चर्चा और तीन पदार्थ है पति, पशु और पाश शैव सम्प्रदाय के सिद्धांत पाशपत्त संप्रदाय के सिद्धांतों की तुलना में कहीं अधिक तर्क संगत है।

काशमीरी शैवमत दो शाखाओं में विभक्त है पहला है 'स्पन्द शास्त्र' दूसरा 'प्रत्यभिज्ञाशास्त्र' स्पन्दशास्त्र के कर्ता बसुगुप्त माने जाते हैं। इस संप्रदाय के दो ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- शिव सूत्र और स्पन्दकारिका, प्रत्यभिज्ञा दर्शन के संस्थापक थे सोमानन्द जिन्होंने शिव दृष्टि नामक ग्रंथ लिखा । प्रत्यभिज्ञादर्शन पर की गई विस्तृत टीकाओं का ग्रंथ अभिनव गुप्त को दिया जाता है। (113 ई० पू०) ।

लिगायत अथवा बीरशैव संप्रदाय को बसव ब्राह्मण से जोड़ा जाता है जिसकी कहानी बसव पुराण में दी गई है। लिगोसत सम्प्रदाय का जिक्र विज्जलराय चरित नामक प्रसिद्ध जन ग्रंथ में भी है। डा० फ्लोट के अभिलेखों के अनुसार लिगायत संप्रदाय के संस्थापक बसव न होकर कोई एकान्तद रामय्या थे। लिगायत सम्प्रदाय के अनुसार लिंग साक्षात शिव हैं जिसके तीन भेद हैं। भावलिग, प्रागलिग एवं इष्टलिन। 

भावलिग कलाओं से रहित है प्रालिग, मनोग्राहय है जबकि इष्टलिग चक्षुग्राह्य व इष्ट इसलिए कहा गया है क्योंकि वह सब क्लेशों को दूर करता है। लिंगायतों में दीक्षा एवं अन्य संस्कारों पर अधिक बल होने के कारण उनको आराध्यों में दीक्षा के पांच कलश स्थापित किए जाते हैं जो क्रमश शिव, वामदेव, अधरि, तत्पुरूष और ईशान का प्रतिनिधित्व करते हैं। 

श्राराध्यो को यह भाव शायद इसलिए भी मिला क्योंकि उन्होंने गायत्री मंत्र एवं यज्ञोपवीत जैसे कई ब्राह्मण विद्याओं को ग्रहण कर लिया था। उपर्युक्त संप्रदायों के अतिरिक्त शक्ति, गाणपत्य एवं स्कन्द कांतिकेय आदि संप्रदाय भी किसी न किसी रूप में शिव से ही जुड़े हैं।

जहां तक साहित्य का प्रश्न है शिव सबसे पहले अश्व घोय की बुद्धचरित्र नामक कृति में उल्लिखित है, रामायण महाभारत का जिक्र हम कर आए हैं. कालान्तर में शिव का जिक्र भरत के नाट्य शास्त्र, वात्सयायन के कालसूत्र और मनुस्मृति में भी मिलता है, उपमा सम्राट कवि कालिदास की रघुवंश, विक्रमोर्वशी, मालविकाग्निमित्र, आदि कृतियों में जगह- जगह शिव की स्तुति की गई है जबकि कुमारसंभव में शिव पार्वती परिणय, मदनं वहन और स्कन्द गुप्त की कहानी विस्तार से रची गई है। 

इसी तरह मेघदूत में शिव की उपासना किस तरह की जाती है इसका भी उल्लेख है, कालिदास के बाद दशकुमार चरित् और बाणभट्ट की कादम्बरी में भी शिव विद्यमान है, बाण के विषय में तो यह निश्चत ही है कि वे शैव थे । शुद्रक को कृतियों में भी केन्द्र शिव ही है। भारतीय संस्कृति में शिव की महत्ता को स्पष्ट करने वाला अन्य पक्ष है। 

हमारे यहां की पुरातात्विक सामग्री जिसमें शिलालेख, मन्दिर मूर्तियों एवं सिक्के सभी को शामिल किया जा सकता है। पुराणो- त्तरकाल में जो शिलालेख हमें शिव की प्रतिष्ठा के प्रमाण में मिलते हैं उनमें सबसे पहले यशोधमा के शिलालेख का नाम लिया जा सकता है, सातवीं शताब्दी में राजा आदित्यसेन के शिलालेख अपस ठ शिलालेख में कार्तिकेय का उल्लेख किया गया है। इसी शती का अनन्तवर्मा या नागार्जुन पर्वत का गुफा लेख है जिसमें शिव पार्वती को प्रतिमाओं की चर्चा है, राजा प्रवरसेन के ताम्रपत्र श्रीऔर उनके सिवानी के शिलालेख में मारशिवं नाम के किसी शैव संप्रदाय का जिक्र है इसी तरह हरिवर्मा के सांगलोई वाले ताम्रपत्र में भी शिव की सर्वोपरिता ही स्थापित की गई है। 

नवीं शताब्दी के दन्तिवर्मा के शिला- लेख में भी शिव की स्तुति की गई है खजुराहो शिलालेख में जो 1000 ईस्वीर का है शित्र को एकेश्वर माता गया है।

जहां तक मंन्दिरों का प्रश्न है समूचा भारत शिव की प्रतिमाओं का भंडार है। शिव की विभिन्न प्रतिमाएं उनके अनेकानेक रूपों को व्यक्त करती है चाहे वह उज्जैन का महाकाल मन्दिर हो चाहे काशी का विश्वनाथ मंदिर । 

कल्याण सुन्दर मूतियों में शिव की एक छबि है तो महेशमूति प्रतिमाओं में उनके पालक, संहारक और सुष्टारूप।

- कैलाश बाजपेयी

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