कोई अपने आप सहयोग दे तो लेते हैं जानिये महाभारत में हनुमान-भीम संवाद का मर्म वर्तमान भारत के लिए इसमें छिपा है बड़ा सबक -दिनेश मालवीय महाभारत में हनुमानजी और महाबली भीमसेन की भेंट की बात तो बहुत प्रचलित है। इसे टीवी सीरियल्स और फिल्मों में बहुत रोचक तरीके से दिखाया जाता रहा है।
इस प्रसंग में हम इस भेंट के दौरान हनुमानजी और महाबली भीमसेन के बीच बातचीत के एक बहुत अहम् पहलू पर चर्चा करेंगे। इस अहम् बात को ठीक से समझने में मदद के लिए, हमें संक्षिप्त में आपको यह प्रसंग फिर से देखना उचित होगा। इसके अनुसार, कि पाण्डवों के वनवास के दौरान अपनी पत्नी की इच्छा पूरी करने के लिए भीमसेन एक सुगन्धित फूल लेने जाते हैं। इस फूल की ख़ुशबू द्रौपदी को इतनी भा गयी थी कि, उन्होंने भीमसेन से इस ख़ुशबू का फूल लाने की फरमाइश कर दी। भीमसेन इस फूल की तलाश में कैलाश पर्वत के पास एक वन में जाते हैं। रास्ते में महावीर हनुमान उनकी परीक्षा लेते हैं। भीमसेन को विनम्रता की शिक्षा देने लिए एक लीला रचते हैं। हनुमानजी भीमसेन के रास्ते में लेट जाते हैं। किसी वानर की पूँछ लांघकर निकलना शास्त्र विरुद्ध माना जाता था।
भीमसेन ने हनुमानजी से अपनी पूँछ हटाने को कहा। हनुमानजी ने कहा कि मैं बूढा और कमज़ोर हो गया हूँ, लिहाजा इस पूँछ को तुम ही हटा दो। भीमसेन ने पूरी ताक़त लगादी, लेकिन पूँछ टस से मस नहीं हुयी। भीमसेन ने समझ लिया कि, याह कोई साधारण वानर नहीं है। भीमसेन ने वानर रूपी हनुमानजी से अपना वास्तविक परिचय देने का अनुरोध किया। हनुमानजी वायुपुत्र होने के नाते भीमसेन के बड़े भाई होते थे। लिहाजा उन्होंने अपना परिचय देते हुए, अपना असली रूप दिखाया। भीमसेन बहुत लज्जित हुए और उनसे क्षमा माँगी। इस तरह हनुमानजी ने भीमसेन को विनम्रता का पाठ पढ़ाया।
भीमसेन ने हनुमानजी से उस रूप को दिखाने का अनुरोध किया, जो उन्होंने सीता माता की खोज में जाने के लिए समुद्र लांघते समय धारण किया था। हनुमानजी ने उन्हें समझाया कि यह उस युग की बात थी। इस युग में इस रूप को दिखाना उचित नहीं है। इसके अलावा तुम उस रूप को देख कर भयभीत भी हो सकते हो। लेकिन भीमसेन ने तो छोटा भाई होने के नाते ज़िद पकड़ ली। हनुमानजी ने भी बड़ा भाई होने के नाते उनकी ज़िद मानकर उन्हें अपना वह विकराल रूप दिखा दिया। भीमसेन की आँखें फटी रह गयीं। अब हम आपको वह बात बताने जा रहे हैं, जिसके लिए इस प्रसंग को हमें दोहराना पड़ा। अपने सामान्य रूप में वापस आकर हनुमानजी ने भीमसेन को गले लगाया। उन्होंने भीम से वरदान माँगने को कहा। उन्होंने कहा कि, तुम मेरे छोटे भाई हो। तुमने मेरा दर्शन किया है। मेरा दर्शन अमोघ है। यानी मेरा दर्शन कर के कोई ख़ाली हाथ नहीं लौटता। तुम्हें कुछ न कुछ माँगना पड़ेगा। हनुमानजी ने कहा कि, मैं तुम पाण्डवों के साथ हुए अन्याय और दुर्योधन के दुष्टतापूर्ण व्यवहार को जानता हूँ।
तुम कहो तो मैं हस्तिनापुर की सेना को मसलकर रख दूँ। दुर्योधन को बांधकर युधिष्ठिर के पाँव में लाकर डाल दूँ। इसके जवाब में भीमसेन ने जो कहा, वही इस पूरे प्रसंग का मर्म है। भीमसेन ने कहा कि हमें सिर्फ आपका आशीर्वाद चाहिए। दुर्योधन और उसकी सेना को हम ही परास्त करेंगे। इस बात में यह सन्देश छिपा है कि वीर अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ते हैं। हनुमानजी ने कहा कि चलो तुम ऐसा ही करना। लेकिन ऐसा कभी नहीं हो सकता कि किसी ने मेरा दर्शन किया हो और उस कुछ मिले नहीं। मैं तुम लोगों के बीच होने वाले युद्ध में अपनी ओर से तुम्हें सहयोग करूँगा। मैं अर्जुन के रथ पर ध्वजा पर विराजमान रहूँगा, जिससे वह रथ पूरी तरह सुरक्षित रहेगा।
इसके अलावा जब तुम युद्धभूमि में हुंकार भरोगे, तो तुम्हारी हुंकार में मैं अपनी हुंकार मिला दूंगा। इससे तुम्हारी हुंकार इतनी भयंकर हो जायेगी कि, शत्रुपक्ष में तुम्हारी शक्ति का आतंक फ़ैल जाएगा। भीमसेन ने यह बात मान ली। यानी, कोई अपने आप सहायता देने की पेशकश करे तो उसे माना जाना चाहिए। इसके पहले, हनुमाजी का विकराल रूप देखकर भीमसेन ने हनुमानजी से पूछा कि आप इतने बलशाली हैं, फिर आप जब लंका गए थे तो रावण को स्वयं ही क्यों नहीं मार दिया। आप इसके लिए पूरी तरह सक्षम थे। श्रीराम को क्यों कष्ट करना पड़ा? इस पर हनुमानजी ने जो बात कही, वह भी इसी बात को रेखांकित करती है कि वीर अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ते हैं और लड़ना भी चाहिए।
मेरे लिए रावण को मारना कोई बड़ी बात नहीं थी। लेकिन लड़ाई श्रीराम की थी और वे ही इसे लड़कर जीतते तभी उनका गौरव होता। ऐसा ही हुआ भी। आज हमारे देश के सामने सीमापार आतंकवाद की जो चुनौतियाँ हैं, उनसे हमें ख़ुद ही निपटना होगा। हमें किसी से सहायता की उम्मीद नहीं रखनी चाहिए। दुनिया का हर देश अपना हित सबसे पहले देखता है। इसके अलावा, जो कमजोर होता है, उसके साथ कोई खड़ा नहीं होता। अफगानिस्तान की सेना कमज़ोर थी, तो उसके साथ कोई देश नहीं आया। आतताइयों ने वहां एक चुनी हई सरकार को हटाकर पूरे देश पर जबरजस्ती कब्जा कर लिया। पूरी दुनिया यह तमाशा देखती रही। भारत को आज अपनी ताक़त बढ़ाने की सबसे ज्यादा ज़रुरत है। अब 26/11 के बाद हमारी सरकार ने जो प्रतिक्रिया दी थी, उसे याद कीजिए।
आपको याद होगा कि, उस घटना के बाद उस समय की सरकार ने कहा था कि, “ अब हम पाकिस्तान के साथ क्रिकेट नहीं खेलेंगे”। कितनी शर्मनाक प्रतिक्रया थी। पाकिस्तान के खिलाफ पूरे सबूत मिल जाने पर भी हमने उसे सबक सिखाने की कोशिश नहीं की। करगिल लड़ाई के समय दुनिया के किसी देश ने भारत के पक्ष में कुछ नहीं किया। वह तो हमारी सेनाओं और प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी की दृढ़ इच्छाशक्ति थी कि हम उस लड़ाई को जीत सके। लेकिन करगिल मामले में भी हम सिर्फ करगिल की पहाड़ियों से घुसपैठियों को हटाकर संतुष्ट हो गये। पाकिस्तान को घर में घुसकर मारा जाना चाहिए था। इसके पाद पीओके और बालाकोट में हम सीमित एयर स्ट्राइक करके चुप बैठ गए।
आज इन दोनों स्थानों पर फिर वही हालत बन गए हैं। महाभारत के इस प्रसंग से हमें यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि, वीर अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ते हैं। कोई अगर अपनी मर्ज़ी से सहयोग करे तो उसे लेने में कोई हर्ज़ नहीं, लेकिन ख़ुद को इतना मजबूत बनाना चाहिए कि, हम अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ सकें। दुनिया हमेशा विजेता के साथ रहती है। जो भी हमारे देश, हमारी संस्कृति और हमारे देशवासियों की तरफ टेड़ी नज़र से देखे, उसे ऐसा ठोंको कि वह फिर दुबारा ऐसा करने की हिम्मत नहीं कर सके। महाभारत युद्ध में कितने लोगों ने भाग लिया था, कौरवों के सभी सेनापति उनकी हार चाहते थे।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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