Published By:धर्म पुराण डेस्क

हिंदू संस्कृति और धर्म..

लेखक- श्री सुदर्शन सिंह जी

हिंदू सदा से धर्मप्राण समाज है। हिंदू समाज का संगठन उस प्रकार अर्थ को आधार मानकर नहीं हुआ है, जैसे पाश्चात्य समाज का। जैसे पाश्चात्य समाज अर्थ पर अवलम्बित है, अपने प्रत्येक कार्य में अर्थ को प्रमुखता देता है, वैसे ही हिंदू समाज धर्म पर अवलम्बित है। 

जीवन के प्रत्येक छोटे-बड़े कार्य यहाँ धर्म के आधार पर व्यवस्थित होते हैं। 'धारयतीति धर्मः ।' जो समाज का, व्यक्ति का धारण करे, वह धर्म है। यह धर्म की पहली परिभाषा है। जैसे अग्नि का धर्म उष्णता है- उष्णता न हो तो अग्नि की सत्ता ही नहीं रह जायगी- ऐसे ही धर्म न हो तो हिंदू समाज की सत्ता ही नहीं रहेगी। धर्म पर ही यह संस्कृति अवलम्बित है। 

पाश्चात्य आलोचक जब अपनी ही भांति हमारे समाज को भी अर्थ पर अवलम्बित मान लेते हैं, तो उनके विश्लेषण भ्रमपूर्ण होते ही हैं। पाश्चात्य प्रणाली को आदर्श मानकर किया गया विश्लेषण अनर्गल कल्पनाओं में मनुष्य को डालेगा ही। 

धर्म ही मनुष्य को धारण करता है, यह बात आज के सुपठित भले न समझ सकें; परंतु यह तो प्रत्यक्ष है कि धर्म की उपेक्षा से ही वर्तमान मनुष्य समाज का पतन हुआ है। घूसखोरी, अनाचार, धूर्तता, चोरी, ठगी, हत्याएं, विश्वासघात – ये सब कुकृत्य धर्म की उपेक्षा से ही मनुष्य में आये हैं और आते जा रहे हैं। विश्व में विनाश की ओर जाने की प्रवृत्ति धर्म त्याग से ही आयी है।

'धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः।' "धर्म का जो नाश करेगा, धर्म उसका विनाश कर देगा और जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।' यह प्राचीनतम सिद्धांत जीवन में प्रत्यक्ष है। 

आज बड़े गर्व से कहा जाता है कि 'प्रगतिवाद मनुष्य को जिस प्रकार पूंजीपतियों की आर्थिक दासता से मुक्त करना चाहता है, वैसे ही आसमानी शासक ईश्वर की दासता और धर्म के बंधनों से भी!' बड़ा अच्छा है मनुष्य को दासताओं से मुक्त होना ही चाहिए, पर फिर मनुष्य समाज की ही दासता क्यों करे ? 

समष्टि के स्वामी सर्वेश्वर की दासता से मुक्त होकर वह देश, जाति, राष्ट्र की कल्पित दासता में क्यों लगे? फिर वह परोपकार, संयम, त्याग, श्रम - यह सब करे ही क्यों? आज 'दासता से मुक्ति' यह शब्द बड़ा लुभावना लगता है पर इसका अर्थ कितने लोग जानते हैं, यह कहना कठिन है। 

ईश्वर या धर्म ने कभी आपसे कहा कि आप उनकी दासता करें? कभी उन्होंने आपको रोका कि आप अमुक कार्य न करें? उन्हें स्वीकार करके उनका अनुगमन करने के लिये क्या आप सदा से स्वतंत्र नहीं हैं? 

प्रश्न तो यह है कि 'मुक्ति' चाहिए किस लिये? बच्चे को माता की गोद से मुक्ति चाहिए लाल-लाल दीखते अंगारों से खेलने के लिये, पागल को मुक्ति चाहिए, शस्त्र से आघात करने के लिए और मन को संयम से मुक्ति चाहिए क्रूरता, लोलुपता, कामुकता को प्रश्रय देने के लिये। ऐसी ही मुक्ति अभीष्ट है?

प्राचीन समाज ने कहा- 'धर्म के अनुसार चलो। परमेश्वर के सम्मुख नम्र रहो, यह दासता कल्याणमय है। मन की दासता से मुक्ति पाओ। यही सच्ची मुक्ति है।' आधुनिक समाज कहता है- 'धर्म और ईश्वर की दासता से मुक्ति पाओ। यह दुर्बलता है। 

नियमबन्धन व्यर्थ हैं। मन की दासता स्वीकार करो मन जैसा कहे, करो।' दासता तो एक की स्वीकार करनी ही है। धर्म के बन्धन सुख, शांति, संतोष देंगे; क्योंकि चंचलता, लोलुपता, संघर्ष को वहाँ स्थान नहीं। मन-इन्द्रियों की दासता देगी शोक, चिंता, अशान्ति और संघर्ष; क्योंकि मन कभी तृप्त होता नहीं। 

विश्व में सब मनमानी कर नहीं सकते। मन की सब इच्छाएं पूरी नहीं हो सकती और जब सबको मनचाही करनी है तो सबल दुर्बलों का उत्पीड़न करेंगे ही। मनुष्य को यही विचार करना है कि वह कौन-सी दासता स्वीकार करेगा, धर्म की मंगलमय अधीनता या मनकी पैशाचिक दासता ?

'धर्म की उपेक्षा से विनाश होता है। यह बात पारलौकिक दृष्टि से आप मानें या न मानें, लौकिक दृष्टि से ही यह प्रत्यक्ष है। रोगी, दुर्बल, दुखी और अशान्त मानव क्या मृतप्राय नहीं है? क्या रोग, दुर्बलता, दुःख, अशान्ति- ये असंयम के ही परिणाम नहीं हैं? जहाँ भी, जितने अंश में कोई व्यक्ति या समाज धर्म के किसी नियम की उपेक्षा करता है, उतने अंश में उसकी हानि होती है। 

उदाहरण के लिये एक व्यक्ति ने चोरी या बलात् धन प्राप्त किया। देखने में वह धनी और सुखी हो गया, परंतु उसकी मानसिक शांति भंग हो गयी। वह मन की दासता में बद्ध हो गया। अब वह असंयम के मार्ग पर जाएगा और रोग, शोक आदि उसे सतायेंगे। जो जातियाँ या समूह अपने यहां हिंसादि तत्त्वों को उत्तेजित करके, दूसरों का स्वत्व अपहरण करके पुष्ट होती हैं, वे हिंसक तत्त्व स्वयं उनके विनाशक बन जाते हैं।

धर्म की उपेक्षा से विनाश को समझ लेने पर धर्म की रक्षा से अपनी रक्षा होती है, यह समझना कठिन नहीं रह जाता। अपनी रक्षा का क्या अर्थ? मनुष्य का शरीर तो एक दिन नष्ट होगा ही। संसार के पदार्थ भी नष्ट होंगे। अपनी रक्षा का सच्चा अर्थ तो है मानसिक शांति, पवित्रता और दृढ़ता की रक्षा। 

वैसे यह तो प्रत्यक्ष ही है कि धर्म की रक्षा से, संयम से स्वास्थ्य, बल आदि की रक्षा होती है; किंतु ये गौण बातें हैं। इनमें अपवाद भी हो सकते हैं। दुष्ट व्यक्ति धार्मिक की संपत्ति को अपहरण कर सकते हैं और उसे आघात पहुँचा सकते हैं। इतने पर भी जिसका मानसिक बल स्थिर है, वही रक्षित है। 

क्योंकि विनाश के जो कारण हैं- लोभ-कामादि, उनसे वह सुरक्षित है। जल से सुरक्षा का यह अर्थ नहीं कि आप घर से बाहर न निकलें; सुरक्षा ठीक तब जब भीगने पर भी रुग्ण न हों। इसी प्रकार जो मानसिक दृढ़ता प्राप्त कर चुका है, वही सुरक्षित है। उसकी सुख-शान्ति अभंग है। यह सुरक्षा धर्म की रक्षा से ही प्राप्त होती है।

आज विश्व में राष्ट्र-धर्म, समाज-धर्म, मानव धर्म आदि विभिन्न धर्मों का उद्घोष किया जाता है; परंतु धर्म दस-बीस या सौ दो सौ नहीं हो सकते। अग्नि का धर्म एक है- उष्णता, जल का धर्म है- रस; ऐसे ही मनुष्य का भी एक ही धर्म है। 

यह दूसरी बात है कि अग्नि की उष्णता जैसे गति, शक्ति और प्रकाश के रूप में प्रकट होती है तथा उसकी आकृति तथा प्रभाव में देश, काल, पात्र के अनुसार विभिन्नता होती है, वैसे ही देश, काल, पात्र के अनुसार धर्म के भी स्वरूप में भेद होता है। धर्म का मुख्य रूप क्या है? यह प्रश्न तब सहज ही उठता है। 

शास्त्रों का कहना है कि प्राणिमात्र का प्रयत्न दुःखहीन शाश्वत सुख पाने के लिये है; अतएव दुःखहीन शाश्वत सुख पाने का भ्रान्तिहीन प्रयत्न ही वास्तविक धर्म है। वह है अंतर्मुखता। जो प्रयत्न अन्तर्मुखी की प्रेरणा दे, वह धर्म और जो बहिर्मुख करे, वह अधर्म यह सार्वभौम सार्वकालिक धर्म की परिभाषा है।

बहिर्मुखता मनुष्य और समाज को असंयम की और, विनाश की ओर ले जाती है और अंतर्मुखता संयम तथा शान्ति की ओर। मन भी एक भौतिक तत्त्व है, यह सभी जानते हैं। जल को आप जितना छानेंगे, शुद्ध करने और ढक रखने का प्रयत्न करेंगे, 

उतना ही वह स्वच्छ रहेगा। उसे खुला छोड़ देंगे तो विकृत हो जाएगा और फिर हानिकारक होगा। समस्त पदार्थों का यही नियम है। मन भी पदार्थ ही तो है। उसे खुला छोड़ेंगे तो विकृत होगा, हानि करेगा। ढक कर रखेंगे, संयमित रखेंगे तो सुख-शांति देगा।

यदि अंतर्मुखता का प्रयत्न ही धर्म है तो उससे व्यक्ति और समाज का धारण कैसे होगा? हिंदू-समाज के इतने कर्म-विस्तार का भी क्या अर्थ? अंतर्मुखता का प्रयत्न और धारणा शक्ति- ये दो वस्तुएँ नहीं हैं। 

शरीर जड है। व्यक्ति में जो चेतनता है, वह अन्तस्तल से आती है। यह सभी जानते हैं कि जिस काम में जितनी एकाग्रता होती है, वह कार्य उतना ही भली प्रकार सम्पन्न होता है। शक्ति का स्रोत भीतर है। 

जो जितना ही अन्तर्मुख होगा, जितना ही एकाग्र हो सकेगा, वह उतनी ही शक्ति प्राप्त करेगा। इसी शक्ति पर उसका तथा समाज का जीवन निर्भर है। जिस समाज में जितने अधिक अन्तर्मुख वृत्ति के पुरुष होंगे, वह समाज उनकी एकाग्रता में प्राप्त सत्य से उतना ही लाभान्वित होगा। उसे उतनी ही शक्ति प्राप्त होगी। वह उतना ही अधिक टिकाऊ बनेगा।

जीवन का क्षेत्र बहुत व्यापक है। संसार में भिन्न भिन्न देशों की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों हैं। मनुष्यों के पृथक्-पृथक् स्वभाव हैं। एक ही मनुष्य को जन्म से मृत्यु तक अनेक अवस्थाओं को पार करना पड़ता है। देश, काल, अवस्था, पात्र आदि के भेद से आचार शास्त्र का निर्माण होता है। 

जीवन के क्षेत्र में एक ही प्रकार से अंतर्मुखता का प्रयत्न और मानसिक शक्ति की सुरक्षा शक्य नहीं। पूजा के आसन पर जिस प्रकार का प्रयत्न शक्य है, वैसा ही प्रयत्न भोजन के आसन पर शक्य नहीं। कार्यक्षेत्र में प्रयत्नों के अनेक रूप हो जाते। हैं। हिंदू-शास्त्र का समस्त आचार-विस्तार इसी भेद से युक्त है। प्रत्येक समय, प्रत्येक कार्य में अन्तर्मुखी का

प्रयत्न बना रहे, मानसिक पवित्रता सुरक्षित रहे- इसके लिये इतने कर्म विस्तार हैं।

मनुष्य एक प्राणी है, अत: उसके धर्म अनेक नहीं हो सकते। विश्व में दो या दस-पाँच धर्म हैं, यह एक भ्रान्ति ही है। विश्व के किसी धर्म में ऐसा कोई मौलिक अन्तर नहीं, जिसके कारण उसे पृथक् धर्म कहा जा सके। अनादि सनातन धर्म ही मानव-धर्म है, यह बात अनादि काल से इतिहास के छः या सात सहस्र वर्ष पूर्व तक विश्वमान्य थी। 

विश्व के शेष धर्म इन छ: सात सहस्र वर्ष  से अधिक प्राचीन नहीं हैं। देश, काल, पात्र के अनुसार महापुरुषों ने धर्म के किसी विशेष अंग को कहीं प्रचलित किया और वही धर्म कहा जाने लगा। मानव-प्रकृति विश्व के पदार्थों के समान ही विकारी है। 

मनुष्य बराबर आदर्श से च्युत होता है और फिर आदर्शों नाम पर अपने दम्भ का प्रसार करता है। जब दम्भ के द्वारा आदर्श आच्छन्न हो जाते हैं तो महापुरुष समाज को धर्म पर ले जाने के लिये दम्भ का संशोधन करते हैं। ये संशोधन ही नूतन धर्म या सम्प्रदाय बन जाते हैं।

सत्य, अहिंसा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, त्याग आदि सार्वभौम धर्म हैं। किसी आचार्य ने किसी पर बल दिया और किसी ने किसी दूसरे पर। समाज की तात्कालिक विकृति को दूर करने के लिए जिस साधन पर बल देना आवश्यक था, उन्होंने उसी को प्रमुखता दी। किसी ने यह नहीं कहा कि वह नूतन धर्म चला रहे हैं। 

शाश्वत धर्म का उद्घाटन – पुनः स्थापन की घोषणा ही सब करते हैं। नवीन धर्म हो भी कैसे सकता है, जबकि मनुष्य प्राचीन प्राणी है। अग्नि में क्या कोई नवीन धर्म उत्पन्न कर सकता है? जो मनुष्य का स्रष्टा है, उसने उसे आदि काल से ही उसका धर्म दिया है। 

जल का धर्म स्वादुपन जब विकृत हो जाता है; तब जल को शुद्ध करना पड़ता है। महापुरुषों ने मानव की विकृति को दूर करने के प्रयत्न बार-बार किये हैं। इन सब प्रयत्नों के परिणाम जिस स्वरूप को प्रकट करते हैं, वही वास्तविक धर्म है। इसी से उसे सनातन धर्म कहते हैं। समस्त धर्म उसके किसी-न-किसी अंश से ही पुष्ट होते हैं। उससे भिन्न कोई धर्म नहीं और न होना सम्भव है।


 

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