1- राजा की आवश्यकता:
बृहस्पति का कहना है कि लोक में जो धर्म देखा जाता है, उसका मूल कारण राजा ही है। राजा से डरने के कारण ही प्रजा एक-दूसरे को नहीं सताती। जब प्रजा मर्यादा को छोड़ने लगती है और लोभ के वशीभूत हो जाती है, तब राजा ही धर्म के द्वारा उसमें शान्ति स्थापित करता है।
यदि राजा न हो तो थोड़े जल में रहने वाली मछलियों और नीरव वन में रहने वाले पक्षियों के समान प्रजा भी आपस में लड़-झगड़ कर बात-की-बात में नष्ट हो जाए। बलवान लोग निर्बलों की बहू-बेटियों को छीन लें और वे यदि सीधे-सीधे न दें तो वे उनके प्राणों के ग्राहक बन जाये।
साधारण मनुष्यों के पास जो वाहन, वस्त्र, अलंकार और तरह-तरह के रत्न हों, उन्हें पापी लोग लूट लें। यदि राजा रक्षा न करे तो धर्मात्माओं को तरह-तरह का शस्त्राघात सहना पड़े, पाप का ही प्रचार होने लगे। पापी लोग माता, पिता, वृद्ध, आचार्य, अतिथि और गुरुओं को भी दुःख देने लगे|
धनवानों को मौत और बंधन का क्लेश भोगना पड़े, कोई भी मनुष्य किसी वस्तु पर अपना स्वत्व न मान सके, लोग अकाल में ही काल के जाल में जाने लगे, देश में दस्युओं की ही प्रधानता हो जाए, व्यापार मिट्टी में मिल जाए, नीति और कर्मकांड का लोप हो जाए|
बड़ी-बड़ी दक्षिणाओं वाले यज्ञ देखने को भी न मिलें और न विवाह या समाज का ही संगठन रहे। यदि राजा प्रजा का पालन न करे तो सारे संसार में त्रास फैल जाय, सबके हृदय डांवाडोल हो जायँ, सब ओर हाहाकार मच जाए और क्षणमात्र में इस सारे संसार का नाश हो जाय।
दधि मंथन का व्यवसाय बंद होकर अहीरों के टोले नष्ट हो जायँ। फिर तो ब्रह्महत्यारा भी मौज से ऐन्द्रिय सुख भोगता रहे, चोर हाथों-हाथ प्रजा की चीजें उड़ा ले जाये, धर्म की सारी मर्यादा टूट जाए, लोग भयभीत होकर इधर-उधर भागने लगे, जगत में अन्याय फैल जाय, प्रजा वर्णसंकर हो जाए और देश में दुर्भिक्ष पड़ने लगे। इसी से देवताओं ने प्रजा के पालन करने वाले राजा की सृष्टि की है|
राजमूलो महाप्राज्ञ धर्मो लोकस्य लक्ष्यते। प्रजा राजभयादेव न खादन्ति परस्परम्॥
राजा ह्येवाखिलं लोकं समुदीर्णं समुत्सुकम्। प्रसादयति धर्मेण प्रसाद्य च विराजते॥
यथा ह्यनुदके मत्स्या निराक्रन्दे विहंगमाः। विहरेयुर्यथाकामं विहिंसन्तः पुनः पुनः॥
हरेयुर्बलवन्तोऽपि दुर्बलानां परिग्रहान्। हन्युर्व्यायच्छमानांश्च यदि राजा न पालयेत्॥
यानं वस्त्रमलंकारान् रत्नानि विविधानि च। हरेयुः सहसा पापा यदि राजा न पालयेत्॥
मातरं पितरं वृद्धमाचार्यमतिथिं गुरुम्। क्लिश्नीयुरपि हिंस्युर्वा यदि राजा न पालयेत्॥
न यज्ञाः संप्रवर्तेयुर्विधिना स्वाप्तदक्षिणाः। न विवाहाः समाजो वा यदि राजा न पालयेत्॥
न नृपाः संप्रवर्तरन्न मध्येरंश्च गर्गराः। वोधाः प्रणाशं गच्छेयुर्यदि राजा न पालयेत्॥
हस्ताद्धस्तं परिमुषेद् भिद्येरन् सर्वसेतवः। भयार्तं विद्रवेत्सर्वं यदि राजा न पालयेत्॥
अनया संप्रवर्तरन् भवेद्वै वर्णसंकरः। दुर्भिक्षमाविशेद्राष्ट्रं यदि राजा न पालयेत्॥
एतस्मात्कारणाद्देवाः प्रजापालान् प्रचक्रिरे॥
किंतु इस तरह के राजा तो सब कोई नहीं हो सकते। राजाओं में बहुत-सी शारीरिक, मानसिक तथा बौद्धिक विलक्षणताएँ होती हैं, जो साधारण मनुष्यों में नहीं होतीं। राजा के स्वभाव, व्यवहार तथा शारीरिक रचना में क्या विलक्षणता होती है- यहाँ पर संक्षेप में इसी का विचार किया जाएगा।
2- राजा शब्द की व्युत्पत्ति तथा मुख्य लक्षण:
'राजू दीप्तौ' इस धातु से 'राष्ट्रावारपाराद् घखौ' इस सूत्र द्वारा घ प्रत्यय करने से 'राजा' शब्द निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है चमकने वाला अर्थात प्रतापवान्। शान्तिपर्व के 59 वें अध्याय में युधिष्ठिर द्वारा यह प्रश्न उठाया गया है कि यह 'राजा' शब्द कैसे उत्पन्न हुआ। इसका उत्तर भीष्म ने बड़े विस्तार से इसी अध्याय में तथा 69 वें अध्याय में दिया है और अंत में बताया है कि सारी प्रजा को प्रसन्न करने के कारण उसे राजा कहा जाता है
रंजिताश्च प्रजाः सर्वास्तेन राजेति शब्दयते।
श्रीमद्भागवत का कहना है कि अपनी चेष्टाओं से प्रजा के मन को आनन्द देने के कारण ही उसे राजा कहा गया।
रंजयिष्यति यल्लोकमयमात्मविचेष्टितैः। अथामुमाहू राजानं मनोरंजनकैः प्रजाः॥
मनु का कहना है कि विचार कर दण्ड देने से सारी प्रजा प्रसन्न रहती है
समीक्ष्य स धृतः सम्यक् सर्वा रंजयति प्रजाः।
कालिदास ने रघ के विषय में कहा है कि जिस तरह किया और सबको तपाकर सूर्य ने अपना नाम सार्थक सभी का आह्लादन कर चन्द्रमा ने अपना नाम सार्थक किया, वैसे ही रघु ने भी प्रजा का रंजन करके अपना 'राजा नाम' सार्थक कर दिया|
यथा प्रह्लादनाच्चन्द्रः प्रतापात्तपनो यथा। तथैव सोऽभूदन्वर्थो राजा प्रकृतिरंजनात्॥
महाभारत का कहना है कि जिसके मरने पर उसके कार्य की सारे मनुष्य सादर प्रशंसा करें, वही राजा हैं|
यस्य वृत्तं नमस्यन्ति स्वर्गस्थस्यापि मानवाः। पौरजानपदामात्याः स राजा राजसत्तमः॥
अन्यत्र इसी ग्रन्थ में कहा गया है कि जिसमें धर्म विराजता हो, उसी को राजा कहते हैं
यस्मिन् धर्मो विराजेत तं राजानं प्रचक्षते।
अपने यहाँ के शब्द कुछ कारण लेकर ही रचे गये हैं। 'राजा' शब्द का अर्थ प्रजा का रंजन करने वाला, धर्म की मूर्ति तथा दीप्तिमान् है तथा यही उसका सर्वप्रधान लक्षण तथा कर्तव्य है। पर आज की हवा विचित्र है, आज के बुद्धिमान् समझे जाने वाले लोगों को इस 'राजा' शब्द से बड़ा प्रचण्ड द्वेष हो गया है और उन्हें इस शब्द में तानाशाही Autocracy की बू मिलती है, पर 'राष्ट्रपति' या 'सभापति' शब्द, जिसमें स्पष्ट ही 'पति' शब्द द्वारा स्वामित्व का निर्देश है, बड़ा रुचता है। इसे यदि हम 'सर्वार्थान्विपरीतांश्च' देखना कहें, तो क्या अनुचित है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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