Definition of Mukti - Liberation and Salvation जो अधूरा है वो आत्मनिर्भर(self dependent) कैसे बन सकता है? हम सब के अंदर एक ऐसा तत्व मौजूद है जो हर हाल में पूरी तरह से स्वतंत्र है| इसी वजह से हम सबके अंदर कभी ना कभी स्वतंत्र होने की इच्छा पैदा होती है| जिसका स्वभाव फ्रीडम है वो बहुत दिन तक बाउंडेशन में नहीं रह सकता| मुक्ति और स्वतंत्रता की बुलबुल आहट इस बात का सबूत है कि हमारे भीतर एक ऐसा अस्तित्व मौजूद है जो हर हाल में दबाव, गुलामी, परतंत्रता, मालकियत से मुक्त रहना चाहता है|
हम अपनी लाइफ में अपने आप को ऊंचा उठाने के लिए समझौते करने लगते हैं| समझौते, झूठ, पाखंड, आडंबर, झूठी शान, दिखावा हमें पराधीन करते हैं परतंत्रता वैचारिक स्तर पर हो या भौतिक स्तर पर अधूरेपन की निशानी है| मतलब साफ है कि हम पूर्णता यानी परफेक्शन तक नहीं पहुंचे हैं| हम जितने पराधीन है उतने ही ज्यादा अपूर्ण हैं इंपरफेक्ट हैं| यदि हम स्वाबलंबी नहीं है, तो हम दूसरों के ऊपर निर्भर है| परस्पर निर्भरता अलग है लेकिन टोटल डिपेंडेंसी बिल्कुल अलग बात है| हमारे अंदर का तत्व जिस शरीर में बैठा है उसकी गुलामी भी पसंद नहीं करता| लेकिन हमारा मन शरीर को ही सब कुछ मान लेता है| इस स्थिति में हमारे अंदर की शक्तियों को प्रॉपर न्यूट्रिशन नहीं मिल पाता|
जिससे हम संपूर्ण जगत मानते हैं दरअसल वह अपूर्ण /अधूरा/इनकंप्लीट है और उस पर निर्भर रहने का मतलब है निर्बलता| निर्बलता/Weakness से हमारे अंदर मौजूद पूर्ण तत्व की झलक भी नहीं मिल सकती| उस पूर्ण तत्व, स्वतंत्र अस्तित्व आत्मा को मुक्त करने के लिए सबसे पहले उसे जानना पड़ेगा| लेकिन उसे बुद्धि, शास्त्रों और प्रवचनों से नहीं जाना जा सकता | आत्मा को प्राप्त करने के लिए सबसे पहले उसे स्वीकार करना पड़ेगा| जब उसे मान्यता देंगे तभी तो उसके अस्तित्व का पता चलेगा| मनुष्य जानवरों से बेहतर है क्योंकि वो अपने बारे में सोच पाता है| अपने बारे में सोचने का मतलब अपने शरीर के बारे में सोच लेना भर नहीं है| खुद को सही सही जान लेना ही आत्मबोध है|
अपने आत्मा को जान लेने के बाद भ्रम खत्म हो जाता है| इस स्थिति को आत्मस्थिति कहा जाता है| जब हम जान जाते हैं कि हम शरीर नहीं है| और इसका अनुभव कर लेते हैं| तब हम बाहर की पराधीनता परतंत्रता/ गुलामी/ निर्भरता / बंधनों से हमेशा के लिए मुक्त हो जाते हैं| जब हम अंदर से मुक्त हो जाते हैं तभी मुक्ति बाहर नजर आने लगती है| यही सच्ची स्वतंत्रता है| ये अमृत के समान है| अंदर से मुक्त हुए बगैर बाहर से मुक्त नहीं हो सकते| गीता में कहा गया है कि -- अपना उद्धार खुद ही करें , अपने को कभी भी गिरने न दें। क्योंकि हम मनुष्य खुद के दोस्त भी हैं दुश्मन भी| जिसने खुद को जीत लिया वो खुदका दोस्त है| जो खुद को नहीं जानता वो अपना सबसे बड़ा दुश्मन है| इस परम मुक्ति की प्राप्ति के लिए हमें शुद्ध ज्ञान की जरूरत पड़ती है| शुद्ध ज्ञान अनुभव से आता है| अनुभव चेतना की जागृति से मिलता है|
यजुर्वेद के मुताबिक जो ज्ञान की जगह अज्ञान की तरफ बढ़ते हैं वह अंधकार की तरफ जाते हैं| जो कोरे ज्ञान में उलझे हुए हैं वह भी घनघोर अंधकार में पड़ जाते हैं| अन्धन्तम: प्रविशन्ति येअ-विद्यामुपासते । ततो-भूय ते तमो य उ विद्यायां रता:॥ अज्ञानता से मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती| इधर-उधर से पढ़कर इकट्ठी की गई जानकारी भी अज्ञान ही है| मुक्ति अंदर से आती है बाहर के ज्ञान से नहीं| मुक्ति तो भीतर से उभरती है और हमारे पूरे जीवन को अपने विस्तार के अंदर ले लेती है। ज्ञान का उदय ही मुक्ति है| मुक्ति ज्ञान का उदय है | हमारे अंदर जितना वास्तविक ज्ञान है उतनी ही मुक्ति है| हम जिस प्रमाण(क्वांटिटी) में अज्ञान(Ignorance) से ग्रस्त हैं उतने ही बंधन में हैं| सीधी सी बात है ज्ञान ही मुक्ति है| इसे ही आत्म साक्षात्कार और आत्मज्ञान कहा जाता है| जब हम जीवित अवस्था में मुक्ति की स्टेट में आ जाते हैं तभी हम मोक्ष के अधिकारी बन पाते हैं| भारतीय दर्शन में मोक्ष का अर्थ है पूर्णता की ऐसी अवस्था जब आत्मा को मनुष्य रूपी शरीर की आवश्यकता नहीं पड़ती| और वो ईश्वरीय शरीर में हमेशा हमेशा के लिए बस जाती है|
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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