हम सभी जानते हैं, कि युग और परिवेश बदलने पर उस समय की घटनाओं की नए संदर्भों में समीक्षा और व्याख्या होती है. लगभग पाँच हज़ार वर्ष पूर्व रचित “महाभारत” महाकाव्य भारत की अनमोल धरोहर है. महाभारत जितना विशाल है, उतना ही अनूठा भी. इसकी हर घटना, प्रसंग, कथा और रूपक बहुत गहरे अर्थ और निहित अर्थ लिए हुए है. महाभारत में हस्तिनापुर नरेश महाराज पांडु के सबसे बड़े पुत्र युधिष्ठिर हैं. इन्हें “धर्मराज” कहा जाता है. आज अनेक विद्वान और आलोचक तर्क देते हैं, कि अपनी पत्नी द्रौपदी को जुये में दांव पर लगाने वाले युधिष्ठर को “धर्मराज” क्यों कहा जाता है? इन लोगों का प्रश्न बिल्कुल उचित है. लेकिन इस प्रसंग में यह बात समझनी होगी, कि किसी व्यक्ति के व्यक्तित्व का मूल्यांकन किन्हीं एक या दो घटना विशेष के आधार पर किया जाना उचित नहीं है. ऐसा उन लोगों के संदर्भ में विशेषकर ध्यान में रखना चाहिए, जिन्हें हमारे ज्ञानवान और प्रज्ञावान पूर्वजों ने महापुरुष माना है.
महाराज युधिष्ठिर के विषय में भी यही दृष्टिकोण अपनाना होगा. यह सही है, कि उन्होंने अपनी पत्नी द्रौपदी को जुये में दांव पर लगाकर हार दिया था. यह सचमुच अक्षम्य अपराध की श्रेणी में आता है. लेकिन यह बात आज के संदर्भ में सही है. उस समय पत्नी को पति की सम्पत्ति माना जाता था. कदाचित यही कारण रहा होगा, कि उस युग के महानतम व्यक्ति भी इसका विरोध नहीं कर पाये. लेकिन इसके बावजूद युधिष्ठिर का यह कदम निंदनीय है. यह कलंक उनके साथ हमेशा रहा. यह इस बात का भी सूचक है, कि जुआ एक ऎसी चीज़ है, जो परम बुद्धिमान व्यक्ति के विवेक का भी हरण कर लेता है. भगवान् श्रीकृष्ण ने श्रीमद्भागवतगीता में कहा है, कि “नाश करने वालों में जुआ मैं हूँ”. महाराज युधिष्ठिर ही नहीं, परम न्यायशील और पराक्रमी राजा नल भी अपनी पत्नी दमयंती को जुये में दांव पर लगाकर हार चुके थे.
युधिष्ठिर को इस भूल और उपजे घटनाक्रम की कसक जीवन भर रही. महाभारत के “वन पर्व” में उन्होंने बार-बार अपने इस अविवेक पर बहुत गहरा क्षोभ व्यक्त किया है. उन्होंने बार बार इसके लिये स्वयं को लज्जित महसूस किया है. युधिष्ठिर को धर्मराज इसलिए कहा जाता है, क्योंकि इस एक अपवाद को छोड़कर उन्होंने जीवन में कभी धर्म के विरुद्ध कुछ नहीं किया. वह अपने दूसरे भाइयों की तरह युद्धकुशल और पराक्रमी नहीं, बल्कि सत्यपराक्रमी थे. उनकी सत्यनिष्ठा और धर्मनिष्ठा पर उनके शत्रुओं तक को पूरा विश्वास था. उन्होंने जीवन में कभी असत्य नहीं बोला. महाभारत युद्ध में केवल सत्य की हार स्पष्ट होती दिखाई देने पर उन्होंने श्रीकृष्ण के कहने पर सिर्फ एक बार झूठ बोला, जो वास्तव में अर्धसत्य था. श्रीकृष्ण ने भीमसेन से “अश्वत्थामा” नाम के हाथी का वध करवाकर इस बात को इस प्रकार प्रसारित करवाया, सबको यह लगा, कि कौरवों के सेनापति द्रोणाचार्य का पुत्र “अश्वत्थामा”मारा गया है.
लेकिन शत्रु सेना का नेतृत्व करने वाले द्रोणाचार्य का युधिष्ठिर की सत्यनिष्ठा पर विश्वास देखिये, कि उन्होंने कहा, यदि युधिष्ठिर कह देंगे, तो वह इस बात को मान लेंगे. उन्हें पूरा भरोसा था, कि युधिष्ठिर ने जीवन में कभी असत्य नहीं बोला और इस बार भी नहीं बोलेंगे. मजबूरी में युधिष्ठिर को कहना पड़ा, “अश्वत्थामा मारा गया”. लेकिन उन्होंने आगे यह भी कहा, कि “मरने वाला हाथी अश्वत्थामा” था. उनके द्वारा कही गयी दूसरी बात को द्रोणाचार्य सुन नहीं सकें, इसलिए श्रीकृष्ण ने बहुत तेज़ स्वर में ढोल-नंगाड़े बजवा दिये. यह युधिष्ठिर के जीवन में बोला गया पहला और अंतिम असत्य था. यह भी आधा ही असत्य था. इन दो बातों के अलावा, युधिष्ठिर का पूरा जीवन निष्कलंक था. उनके भीतर धर्म और सत्य के सूक्षम तथ्यों की की समझ इतनी गहरी थी, कि उस युग के महाज्ञानी कहे जाने वाले लोग भी उनके इस गुण के कायल थे. अपनी इसी समझ और ज्ञान के बल पर उन्होंने दो बार अपने भाइयों के प्राणों की रक्षा की.
एक बार जब पाण्डव अपनी माता कुंती के साथ लाक्षागृह की से बचकर वन में विचर रहे थे, तब धर्मराज ने यक्ष का रूप रखकर उनके ज्ञान, विवेक और मानवीय गुणों की परीक्षा की. पाण्डव जब बहुत प्यासे थे, तो उनके भाई नकुल एक सरोवर से जल लेने गये. सरोवर में से आवाज़ आयी, कि इस जल को मत पीना. लेकिन नकुल ने उसकी अवहेलना कर जैसे ही जल को हाथ लगाया, वह वहीं मर गये. इसके बाद सहदेव, अर्जुन और भीम का भी यही हाल हुआ. अंत में युधिष्ठिर जब जल लेने गये, तो वही आवाज़ आयी. एक यक्ष प्रकट हुआ, जिसने कहा, कि यदि तुम मेरे प्रश्नों का सही उत्तर दोगे, तो जल पी सकते हो. युधिष्ठिर ने यक्ष के सभी प्रश्नों के सही उत्तर दिये. यक्ष ने अपना असली रूप दिखाया. वह स्वयं धर्मराज थे. धर्मराज ने कहा, कि मैं तुमसे प्रसन्न हूँ. तुम अपने चारों भाईयों में से किसी एक को पुन: जीवित होने का वरदान माँग सकते हो. युधिष्ठिर ने कहा, कि आप नकुल को जीवित कर दें. धर्मराज ने कहा, कि तुमने अपने सगे और परम बलशाली भाई अर्जुन या भीम को जीवित करने का वरदान क्यों नहीं माँगा? ये दोनों तुम्हें आने वाले युद्ध में जीत दिला सकते थे. युधिष्ठिर ने कहा, कि माता कुंती और माता माद्री दोनों मेरे लिए समान हैं. मैं माता कुंती का एक पुत्र जीवित हूँ, इसलिए माता माद्री का भी एक पुत्र जीवित होना चाहिए. नकुल सबसे छोटा है, इसलिए उसे जीवित कर दीजिये. युधिष्ठिर के इस उच्च मानवीय भाव और न्यायप्रियता से प्रसन्न होकर धर्मराज ने सभी पाण्डवों को जीवित कर दिया.
धर्म के पारगामी विद्वान युधिष्ठिर ने अपने ज्ञान और धर्म की गहरी समझ के बल पर एक बार और अपने भाइयों के प्राणों की रक्षा की. एह बार उनके एक पूर्वज राजा नहुष ऋषियों के शाप से नहुष अजगर की योनि में वन में रहते थे. एक बार महाबली भीमसेन उसके लपेटे में आ गए. वह पूरी शक्ति लगाकर भी छूट नहीं पाये. तब युधिष्ठिर वहां आये. अजगर ने युधिष्ठिर से धर्म और आचार को लेकर बहुत जटिल प्रश्न किये, जिनका युधिष्ठिर ने सही-सही उत्तर दिया. इससे अजगर ने भीमसेन को छोड़ दिया. वह स्वयं भी अजगर की योनि से मुक्त हो गये. युधिष्ठिर की विनयशीलता अनुकरणीय थी. युद्ध प्रारंभ होने से पहले वह अपने रथ से उतरकर शत्रुसेना के सेनापति भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अन्य सम्मानीय लोगों को पैदल चलकर प्रणाम करने गये और उनसे आशीर्वाद लिया. युधिष्ठिर किसीका कभी अपमान नहीं करते थे. उन्होंने राजा बनने पर उनके विरुद्ध तमाम तरह के षडयंत्र करने वाले धृतराष्ट्र को पूरा सम्मान दिया. उनको और उनकी पत्नी गांधारी की सुख-सुविधा में कोई कमी नहीं रखी. ऐसे सदाचारी व्यक्ति को यदि हमारे पूर्वजों ने “धर्मराज” और महापुरुष कहा, तो यह सर्वथा उचित है. जिसने मनुष्य रूप में जन्म लिया है, उससे कोई न कोई गल्ती होना और उसके आचरण में कोई छोटी-मोटी त्रुटि होना स्वाभाविक है. लेकिन उसके पूरे व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने के लिए उसके समग्र चरित्र को ध्यान में रखा जाना चाहिए.
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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