Published By:धर्म पुराण डेस्क

जुआरी से राजा बलि कैसे हुआ …

एक दिन कपट पूर्वक जुए में उसने बहुत धन जीता। फिर अपने हाथों से पान का स्वस्तिक का बीड़ा बनाकर तथा गंध और माला आदि सामग्री लेकर एक वेश्या को भेंट देने के लिए वह उसके घर की ओर दौड़ा। 

रास्ते में पैर लड़खड़ाये। पृथ्वी पर गिरा और मूर्च्छित हो गया। जब होश आया, तब उसे बड़ा खेद और वैराग्य हुआ। उसने अपनी सारी सामग्री बड़े शुद्ध चित्त से वहीं पड़े हुए एक शिवलिंग को समर्पित कर दी। 

बस, जीवन में उसके द्वारा यह एक ही पुण्य कर्म सम्पन्न हुआ। कालांतर में उसकी मृत्यु हुई। यमदूत उसे यमलोक ले गये।

यमराज बोले-'ओ मूर्ख! तू अपने पाप के कारण बड़े-बड़े नरकों में यातना भोगने योग्य है। उसने कहा- 'महाराज! यदि मेरा कोई पुण्य भी हो तो उसका विचार कर लीजिए ।' चित्रगुप्त ने कहा- तुमने मरने के पूर्व थोड़ा-सा गंध मात्र भगवान शंकर को अर्पित किया है। 

इसके फलस्वरूप तुम्हें तीन घड़ी तक स्वर्ग का शासन-इन्द्र का सिंहासन प्राप्त होगा।' जुआरी ने कहा- 'तब कृपया मुझे पहले पुण्य का ही फल प्राप्त कराया जाय।'

अब यमराज की आज्ञा से उसे स्वर्ग भेज दिया गया। देवगुरु बृहस्पति ने इंद्र को समझाया कि 'तुम तीन घड़ी के लिए अपना सिंहासन इस जुआरी के लिये छोड़ दो। पुनः तीन घड़ी के बाद यहां आ जाना।' 

अब इन्द्र के जाते ही जुआरी स्वर्ग का राजा बन गया। उसने सोचा कि 'बस, अब भगवान शंकर के अतिरिक्त कोई शरण नहीं।' इसलिये अनुरक्त होकर उसने अपने अधिकृत पदार्थों का (शंकर जी के हेतु) दान करना प्रारम्भ किया। 

महादेव जी के उस भक्त ने ऐरावत हाथी अगस्त्य जी को दे दिया। उच्चैः श्रवा अश्व विश्वामित्र को दे डाला। कामधेनु गाय महर्षि वशिष्ठ को दे डाली। चिन्तामणि रत्न गालवजी को समर्पित किया। 

कल्पवृक्ष उठाकर कौण्डिन्य मुनि को दे दिया। इस प्रकार जब तक तीन घड़ियां समाप्त नहीं हुई, वह दान करता ही गया और प्राय: वहां के सारे बहुमूल्य पदार्थों को उसने दे डाला। इस प्रकार तीन घड़ियां बीत जाने पर वह स्वर्ग से चला गया।

जब इन्द्र लौटकर आये, तब अमरावती ऐश्वर्यशून्य पड़ी थी। वे बृहस्पति जी को लेकर यमराज के पास पहुंचे और बिगड़कर बोले – 'धर्मराज! आपने मेरा पद एक जुआरी को देकर बड़ा ही अनुचित कार्य किया है। उसने वहाँ पहुँच कर बड़ा बुरा काम किया।

आप सच मानें, उसने मेरे सभी रत्न ऋषियों को दान कर दिये और अब अमरावती सूनी पड़ी है।'

धर्मराज बोले- 'आप इतने बड़े हो गये, किन्तु अभी तक आपकी राज्य विषयक आशक्ति दूर नहीं हुई! अब उस जुआरी का पुण्य आपके सौ यज्ञों से कहीं 

महान् हो गया है। बड़ी भारी सत्ता हस्तगत हो जाने पर जो प्रमाद में न पड़कर सत्कर्म में तत्पर होते हैं, वे ही धन्य हैं। 

जाइये, अगस्त्यादि ऋषियों को धन देकर या चरणों में पड़कर अपने रत्न लौटा लीजिये। बहुत अच्छा' कहकर इन्द्र स्वर्ग लौट आये और इधर वही जुआरी पूर्वाभ्यास वशात् तथा कर्म विपाकानुसार बिना नरक भोगे ही महादानी विरोचन-पुत्र बली हो गया। 

(स्कन्द पुराण, माहेश्वरखण्ड, केदारखण्ड अध्याय १८)


 

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