 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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इन दस महाविद्याओं का संबंध सती, शिवा और पार्वती से है. ये ही अन्यत्र नवदुर्गा, शक्ति, चामुंडा, विष्णुप्रिया आदि नामों से पूजित और अर्चित होती हैं.
दक्ष प्रजापति ने भगवान शिव से द्वेष रखने के कारण अपने यज्ञ में उन्हें आमंत्रित नहीं किया, फिर भी, सती ने भगवान शिव से उस यज्ञ में जाने की आज्ञी मांगी. शिव ने अनुचित बताकर उन्हें जाने से रोका, लेकिन सती ने हठ पकड़ लिया और कहा- "मैं अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अवश्य जाऊंगी.
वहां आपके लिए यज्ञ भाग प्राप्त करूंगी और यदि ऐसा न कर सकी तो यज्ञ को ही नष्ट कर दूंगी." यह कहते हुए सती की आंखें लाल हो गयीं, वे भगवान शिव को उग्र दृष्टि से देखने लगीं. उनके अधर फड़कने लगे और वर्ण काला पड़ गया. क्रोधाग्नि से दग्ध उनका शरीर महा भयानक तथा उग्र दीखने लगा. वे प्रचंड तेज से तमतमा रही थीं.
उनका शरीर वृद्धावस्था को सम्प्राप्त-सा, केशराशि बिखरी हुई और चार भुजाओं से शोभित पराक्रम की वर्षा करती-सी प्रतीत हो रही थीं. कालाग्नि के समान महाभयानक रूप में देवी मुंडमाला पहने हुई थीं। और उनकी भयानक जिह्वा बाहर निकली हुई लप-लपा रही थी, सिर पर अर्द्धचंद्र सुशोभित रहा था और शरीर विकराल लग रहा था. वे बार-बार हुंकार कर रही थी. देवी का यह स्वरूप भगवान शिव के लिए भी भयप्रद एवं प्रचंड था.
अतः वे इस रूप को देखकर डर गये; क्योंकि देवी बार-बार अट्टाहास कर रही थीं. देवी के इस भयानक रूप को देख कर भगवान शिव वहां से भाग चले. तब भागते हुए शिव को दसों दिशाओं में रोकने के लिए देवी ने अपनी अंगभूता दस देवियों को प्रकट किया, देवी की ये स्वरूपा शक्तियां ही दस महाविद्याएं हैं जिनके नाम हैं- काली, तारा, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगलामुखी, कमला, त्रिपुरभैरवी, भुवनेश्वरी, त्रिपुरसुंदरी तथा मातंगी, अपने को घिरा देख कर भगवान शिव रुक गये और उन्होंने सती से इन महाविद्याओं का परिचय पूछा.
तब सती ने स्वयं व्याख्या करते हुए कहा- शंभो! आपके सम्मुख जो यह कृष्ण वर्ण तथा भयंकर नेत्रों वाली देवी स्थित हैं वे काली हैं, जो श्याम वर्ण वाली देवी ऊर्ध्वभाग में स्थित हैं वे महाकाल स्वरूपिणी महाविद्या तारा हैं. बायीं ओर जो अत्यंत भयदायिनी मस्तकरहित देवी हैं वे महाविद्या छिन्नमस्ता हैं.
आपके बायें भाग में जो देवी खड़ी हैं वे भुवनेश्वरी हैं. आपके पीछे जो देवी खड़ी हैं वे शत्रु संहारिणी बगला हैं. आपके अग्निकोण में जो विधवा रूप में हैं, महेश्वरी महाविद्या धूमावती हैं. आपके नैर्ऋत्यकोण में जो देवी हैं वे त्रिपुरसुंदरी हैं. आपके वायव्य कोण में जो देवी हैं वे मतंगकन्या महाविद्या मातंगी हैं. आपके ईशान कोण में महेश्वरी महाविद्या षोडशी देवी हैं. प्रभो! और, मैं भयंकर रूप वाली भैरवी हूं. आप भय मत करें. ये सभी मूर्तियां बहुत-सी मूर्तियों में प्रकृष्ट हैं|
येयं ते पुरतः कृष्णा सा काली भीमलोचना ।
श्यामवर्णा च या देवी स्वयमूवं व्यवस्थिता ।।
सेयं तारा सव्येतरेयं महाविद्या महाकालस्वरूपिणी ।
या देवी विशीर्षातिभयप्रदा ॥
इयं देवी छिन्नमस्ता महाविद्या महामते ।
वामे तवेयं या देवी सा शम्भो भुवनेश्वरी ।।
पृष्ठस्तव या देवी बगला शत्रुसूदिनी ।
वह्निकोणे तवेयं विधवारूपधारिणी ॥
या देवी महाविद्या महेश्वरी ।
या देवी सेयं त्रिपुरसुन्दरी ।।
सेयं धूमावती नैर्ऋत्यां तव वायौ या ते महाविद्या सेयं मतङ्गकन्यका ।
ऐशान्यां षोडशी देवी महाविद्या महेश्वरी ॥
अहं तु भैरवी भीमा शम्भो मा त्वं भयं कुरु ।
एताः सर्वाः प्रकृष्टास्तु मूर्तयो बहुमूर्तिषु ॥
इस आख्यान से ऐसा प्रतीत होता है कि महाकाली ही मूलरूपा मुख्य हैं और उन्हीं के उग्र और सौम्य- दो रूपों में अनेक रूप धारण करने वाली ये दस महाविद्याएं हैं. दूसरे शब्दों में महाकाली के दशधा प्रधान रूपों को ही दस महाविद्या कहा जाता है भगवान शिव की शक्तियां ये दस महाविद्याएं लोक और शास्त्र में अनेक रूपों में पूजित हुईं, लेकिन दस रूप प्रमुख हो गये, ये ही महाविद्याएं साधकों की परम धन हैं जो सिद्ध होकर अनंत सिद्धियों और अनंत साक्षात्कार कराने में समर्थ हैं.
यद्यपि महाविद्याओं के क्रम-भेद तो प्राप्त होते हैं, लेकिन काली की प्राथमिकता सर्वत्र देखी जाती है, वैसे भी दार्शनिक दृष्टि से कालतत्व की प्रधानता सर्वोपरि है. यही कारण है कि मूलतः महाकाली या काली अनेक रूपों में विद्याओं की आदि हैं और उनकी विद्यामय विभूतियां महाविद्याएं हैं.
ऐसा आभास होता है कि महाकाल की प्रियतमा काली अपने दक्षिण और वाम रूपों में दस महाविद्याओं के रूप में विख्यात हुईं और उनके विकराल तथा सौम्य रूप ही विभिन्न नामरूपों के साथ दस महाविद्याओं के रूप में अनादिकाल से ही अर्चित हो रहे हैं. ये रूप अपनी उपासना, मंत्र और दीक्षाओं के भेद से अनेक होते हुए भी मूलतः एक ही हैं. हां, अधिकारीरूप से अलग-अलग रूप और उपासना स्वरूप प्रचलित हैं.
शिवशक्त्यात्मक तत्व का अखिल विस्तार और लय सब कुछ शक्ति का ही लीला-विलास है. सृष्टि में शक्ति और संहार में शिव की प्रधानता दृष्ट है. जिस प्रकार अमा और पूर्णिमा दोनों दो भासती हैं, लेकिन दोनों की तत्वतः एकात्मकता और दोनों एक-दूसरे के कारण परिणामी हैं उसी प्रकार दस महाविद्याओं के रौद्र और सौम्य रूपों को भी समझना चाहिए|
काली, तारा, छिन्नमस्ता, बगला और धूमावती विद्यास्वरूप भगवती के प्रकट कठोर, लेकिन अप्रकट करण-रूप हैं तो भुवनेश्वरी, षोडशी (ललिता), त्रिपुरभैरवी, मातंगी और कमला विद्याओं के सौम्य रूप, रौद्र के सम्यक् साक्षात्कार के बिना माधुर्य को नहीं जाना जा सकता और माधुर्य के अभाव में रुद्र की सम्यक् परिकल्पना नहीं की जा सकती.
 
 
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