हम अपने कर्मों का फल कैसे भोगते हैं? हमारे कर्मों का हिसाब किताब कौन रखता है? कर्म कहां स्टोर होते हैं?कर्म किस रूप में स्टोर होते हैं? अतुल विनोद
हम सब जानते हैं कि हमें अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है| हम सब अजर अमर आत्मा है तो फिर कर्म कौन भोगता है? आत्मा अजर अमर अविनाशी है| जो अजर अमर अविनाशी होगा वह दो नहीं होगा वह एक ही होगा| जो शुद्ध बुद्ध मुक्त है वह ना तो करने वाला होगा ना भोगने वाला|
जब आत्मा एक है सर्वव्यापी है तो फिर जिन्हें हम आत्माएं कहते हैं वह कौन है? जो इतनी अधिक हैं? जो अपने अपने कर्मों का फल भोगती हैं? वो कौन हैं? दरअसल जिन्हें हम आत्माएं कहते हैं वह आत्मा नहीं जीवात्मा हैं|
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एक सर्वव्यापी अजर अमर अविनाशी परमात्मा से अनेक जीवआत्माएं पैदा हो जाती हैं| शुद्ध, बुद्ध , मुक्त आत्मा की उपस्थिति में सभी प्रकार की भावनाओं(क्वान्टा/क्वार्क या सूक्ष्म परमाणुओं) का समूह आपस में जुड़कर एक पुंज बन जाता है| यह पुंज जीवात्मा का कारण शरीर कहलाता है| वह कारण जिसकी वजह से जीव अस्तित्व में आता है|
यही भावनाओं का पुंज सूक्ष्म शरीर बनाता है| भावनाएं अपने साथ सूक्ष्म तत्वों को जोड़ती जाती हैं| भावनाओं का पुंज और सूक्ष्म तत्वों का पुंज मिलकर जीवात्मा बनाता है| जीवात्मा स्थूल तत्वों से मिलकर मानव का रूप ले लेती है|
इस जगत में भावनाओं के पुंज यानी “कारण-शरीर” का भी एक संसार है| इस जगत में भावनाओं और सूक्ष्म तत्वों के समूह “सूक्ष्म-शरीर” का भी एक संसार है| इस जगत में कारण शरीर, सूक्ष्म शरीर और स्थूल शरीर से निर्मित “मानवों” का भी एक संसार है|
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जैसे जैसे हमारे कर्म आकार लेते जाते हैं उन कर्मों का फल यानी उनकी ऊर्जा जीवात्मा से वाइब्रेशन, एनर्जी, क्रिस्टल या क्वांटम के फॉर्मेट में जुड़ने लगती है| जैसे ही कोई कर्म फल मिल जाता है वैसे ही उस रूप में मौजूद ऊर्जा भी नष्ट हो जाती है|
जब भी हम मन, वचन या शरीर से कोई कर्म करते हैं तो उनसे पैदा हुई ऊर्जा एक खास फॉर्मेट में जीव आत्मा से अटैच हो जाती है| जैसे दो हाथों को आपस में घिसने से एक एनर्जी या आवेश हाथों में कुछ समय के लिए आ जाता है ऐसे ही कर्मों के कारण पैदा हुई ऊर्जा “सूक्ष्म-शरीर” में आ जाती है|
शारीरिक कार्य, से बोलने से, विचारने से, भावनाओं से, मिलने जुलने से, व्यवहार से यह ऊर्जा उत्पन्न होती है| मूल रूप से आत्मा शुद्ध बुद्ध और मुक्त है लेकिन उस आत्मा के परम प्रकाश से ऊर्जा लेकर पैदा हुई जीवात्मा अपने कर्मों के कारण कर्म फलों से बंधती चली जाती है|
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कर्मफल एक तरह का भार है जिन्हें जीवात्मा को जल्द से जल्द उतारना होता है| क्योंकि न भोगे जाने पर यह भार बढ़ता चला जाता है| इसलिए एक निश्चित समय के बाद हर कर्मफल को जीवात्मा को मजबूरन भोगना ही पड़ता है| एक कर्म का फल जब पक जाता है तो उसे तोड़ना ही पड़ता है|
आस्रव: व्यक्ति के मन वचन कर्म से पैदा हुआ कर्मफल जीवात्मा की तरफ आकर्षित होकर उससे जुड़ कर आस्रव कहलाता है|
बंध: कर्म फलों का जीव आत्मा के साथ गहरा संबंध बंध बन जाता है|
संवर: व्यक्ति के अपने कर्म फलों से डीटैच हो जाने से कर्म फलों में न्यूट्रल अवस्था आजाने को संवर कहते हैं| इस अवस्था में कर्म अपना फल नहीं दे पाते| उनसे पैदा हुयी उर्जा जीवात्मा से नही जुड़ पाती|
निर्जरा: जब कर्मफल रूपी ऊर्जा यानी स्थितिज-ऊर्जा गतिज ऊर्जा में कन्वर्ट होकर जीवात्मा से अलग हो जाती है तब उसे निर्जरा कहते हैं|
मोक्ष: जब सभी तरह के कर्म से पैदा हुए परमाणु या स्थितिज ऊर्जा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से अलग हो जाती है तब मोक्ष की अवस्था आती है|
हमारे कर्मों से पैदा हुई ऊर्जा को हम कार्मिक अकाउंट, कार्मिक स्थितिज ऊर्जा या कर्म बंधन कहते हैं| इसी एनर्जी के आवरण के कारण हम अपनी आत्मा के मूल स्वरूप को नहीं देख पाते| यह कार्मिक एटम या कार्मिक क्वांटा स्थूल शरीर छोड़ने पर भी सूक्ष्म और कारण शरीर से जुड़े रहने के कारण अगले भौतिक जीवन में कैरी फॉरवर्ड हो जाते हैं|
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यही कार्मिक एटम/ क्रिस्टल्स अपनी शक्ति से शरीर को आकर्षित करते हैं| इसकी जैसी वाइब्रेशन होगी, इसकी जैसी प्रकृति और प्रवृत्ति होगी वैसी ही बॉडी को यह अडॉप्ट करेगा| यह कर्म परमाणु ही हमारी शारीरिक लाइफ तय करते हैं| यदि कार्मिक एनर्जी अच्छी क्वालिटी की है तो हमें अच्छी बॉडी, अच्छे एटमॉस्फेयर और सरकमस्टेंसस के साथ मिलेगी| बीच-बीच में हम नई एटॉमिक कार्मिक एनर्जी अपने साथ ऐड करते जा सकते हैं|
हम अपने छोटे से भौतिक जीवन में कई प्रकार की कार्मिक एनर्जी को अपने साथ जोड़ सकते हैं या फिर हम अपने साथ जुड़ी हुई सारी कार्मिक एनर्जी को धीरे-धीरे उन्हें भोगते हुए रिलीज कर सकते हैं|
नॉलेज एनर्जी: बाहरी बातों का बहुत ज्यादा ज्ञान, इंफॉर्मेशन, एक्सपीरियंस नॉलेज एनर्जी बढ़ाते हैं और यह नॉलेज एनर्जी आत्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक लेती है|
विजुअल एनर्जी: विजुअल वर्ल्ड में यानी दृश्यमान जगत में बहुत ज्यादा इंवॉल्व रहने से विजुअल एनर्जी बढ़ती है| दृश्य जगत यानी इस संसार में दीखने वाली तमाम सुंदर और असुंदर चीजों में बहुत ज्यादा लिप्त रहना, इनका बहुत ज्यादा भोग करना, लगातार टेलीविजन मोबाइल इंटरनेट या घूमने फिरने से, बहुत ज्यादा विजुअल इंफॉर्मेशन इकट्ठा कर लेने से, विजुअल एनर्जी बढ़ जाती है| जिससे हम अपने आत्मस्वरूप को विजुअल एनर्जी से ढक लेते हैं और आत्म स्वरूप को देखने से वंचित हो जाते हैं|
अटैचमेंट एनर्जी: मोह से पैदा होने वाली कार्मिक एनर्जी, आत्मा के वास्तविक शांति सुख और सहजता के स्वभाव को ढक लेती है| मोह के कारण पैदा हुई अटैचमेंट एनर्जी विवेक और बुद्धि नष्ट कर देती है| इससे व्यक्ति अपना आत्मिक स्वरुप भूल जाता है| छोटी-छोटी चीजों में| व्यक्ति वस्तु स्थान में, आसक्त हो जाता है और इससे पैदा हुई एनर्जी कई जन्मों तक भोगने के बाद ही खत्म होती है|
सेल्फ एनर्जी: हम अपने आत्मस्वरूप को भूलकर धीरे-धीरे अपनी आइडेंटिटी को ही सच मानने लगते हैं| हम खुद को एक अलग सत्ता मानने लगते हैं जिससे हम अपने पूर्ण, सर्वव्यापी स्वरूप को भूल जाते हैं| अपनी आइडेंटिटी को बहुत ज्यादा तवज्जो देने से पैदा होने वाली ऊर्जा 'सेल्फएनर्जी' कहलाती है| हर जन्म में हम एक अलग व्यक्ति के रूप में होते हैं और उस व्यक्तित्व को अपने साथ जोड़ लेते हैं ऐसे अनेक व्यक्तित्व के कारण पैदा हुई सेल्फ-एनर्जी आत्मा से दूरी बना देती है|
स्पीशीज एनर्जी: हमारे अलग-अलग जन्मों के कारण हमारे साथ जुड़ने वाले शरीरों से पैदा हुई एनर्जी भी एक प्रकार की कार्मिक एनर्जी है जो हमारी जीवात्मा के साथ जोड़कर उसे बंधन में डालती है|
ऐसी अनेक प्रकार की कार्मिक उर्जायें जो हमारे कर्म, संबंध, शरीर, भोग, व्यक्तित्व, पूजा-पाठ, साधना, अवस्थाएं, देशकाल और परिस्थितियों के अनुरूप जीवात्मा से जुड़ जाती हैं| इन सभी के कारण जीवात्मा का घनत्व बढ़ता जाता है यह घनत्व जितना अधिक होता है उतनी ही मुक्ति कठिन होती है|
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कर्म फलों का घनत्व जितना कम होगा उतनी ही मुक्ति आसान होगी| मुक्ति और मोक्ष के लिए इन कर्म फलों को भोगते रहना और नए कार्मिक अकाउंट को क्रिएट न करना ही एकमात्र रास्ता है| जिनका फल मिलना बाकी है उन्हें संचित कार्मिक एनर्जी कहते हैं| जिनका फल मिलना शुरू हो गया है उन्हें प्रारब्ध कार्मिक एनर्जी कहते हैं| और जो कार्मिक एनर्जी हम क्रिएट कर रहे हैं उन्हें क्रियामाण कार्मिक एनर्जी कहते हैं|
प्रारब्ध कर्मों को भोगना ही पड़ता है जबकि संचित कर्मों को वास्तविक ज्ञान के द्वारा नष्ट किया जा सकता है| मुक्ति के लिए सबसे पहले इस धरती के आवागमन से मुक्त होना पड़ता है| इस धरती के आवागमन से मुक्त होने के बाद सूक्ष्म जगत के आवागमन से मुक्त होना होता है| सूक्ष्म जगत के आवागमन से मुक्त होने के बाद कारण जगत के आवागमन से मुक्त होना पड़ता है| जब तीनों शरीरों का विसर्जन हो जाता है तो हम शुद्ध बुद्ध मुक्त रूप में स्वयं प्रकाश में स्थापित हो जाते हैं|
अतुल विनोद
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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