Published By:अतुल विनोद

कर्म और योग मिलकर कर्म योग कैसे बन जाता है?...

जब जीव मनुष्ययोनिमें जन्म लेता है, तब उसको शरीर, धन, जमीन, मकान आदि सब सामग्री मिलती है; और जब वह यहां से जाता है, तब सब सामग्री यहीं जाती । इस सीधी-सादी बात से यह सहज ही सिद्ध होता है कि शरीर आदि सब सामग्री मिली हुई है, अपनी नहीं है। 

जैसे मनुष्य काम करने के लिये किसी कार्यालय (ऑफिस)-में जाता है तो उसे कुर्सी, मेज, कागज आदि सब सामग्री कार्यालय का काम करने के लिये ही मिलती है, अपनी मानकर घर ले जाने के लिए नहीं। ऐसे ही मनुष्य को संसारमें शरीर आदि सब सामग्री संसार का काम (सेवा) करने के लिये ही मिली है, अपनी मानने के लिये नहीं। मनुष्य तत्परता और उत्साहपूर्वक कार्यालय का काम करता है तो उस काम के बदले में उसे वेतन मिलता है। काम कार्यालय के लिये होता है और वेतन अपने लिये । 

इसी प्रकार संसार के लिये ही सब काम करने से संसार से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है और योग (परमात्मा के साथ अपने नित्य सम्बन्ध)-का अनुभव हो जाता है। 'कर्म' और 'योग' दोनों मिलकर कर्मयोग कहलाता है। कर्म संसारके लिये होता है और योग अपने लिये। यह योग ही मानो | वेतन है।

• संसार साधना क्षेत्र है। यहाँ प्रत्येक सामग्री साधन के | लिये मिलती है, भोग और संग्रह के लिये कदापि नहीं।

सांसारिक सामग्री अपनी और अपने लिये है ही नहीं। अपनी वस्तु - परमात्म-तत्त्व मिलने पर फिर अन्य किसी वस्तु को पाने की इच्छा नहीं रहती (गीता-छठे अध्याय का बाईसवाँ श्लोक) । परन्तु सांसारिक वस्तुएँ चाहे जितनी प्राप्त हो जायँ, पर उन्हें पाने की इच्छा कभी मिटती नहीं, प्रत्युत और बढ़ती है।

जब मनुष्य मिली हुई वस्तु को अपनी और अपने लिये मान लेता है, तब वह अपनी इस भूल के कारण बँध जाता है। इस भूल को मिटाने के लिये कर्मयोग का अनुष्ठान ही सुगम और श्रेष्ठ उपाय है। कर्मयोगी किसी भी वस्तु को अपनी और अपने लिए न मानते हुए उसे दूसरों की सेवा में (उन्हीं की मानकर) लगाता है। अतः वह सुगमतापूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।

कर्म तो सभी प्राणी किया करते हैं, पर साधारण प्राणी और कर्मयोगी द्वारा किये गये कार्यों में बड़ा भारी अन्तर होता है। साधारण मनुष्य (कर्मी) आसक्ति, ममता, कामना आदि को साथ रखते हुए कर्म करता है, और कर्मयोगी आसक्ति, ममता, कामना आदि को छोड़कर कर्म करता है। कर्म के कर्मों का प्रवाह अपनी तरफ होता है और कर्मयोगी के कर्मों का प्रवाह संसार की तरफ। इसलिये कर्मी बँधता है और कर्मयोगी मुक्त होता है।

'असक्तो ह्याचरन्कर्म'- मनुष्य ही आसक्तिपूर्वक संसार से अपना संबंध जोड़ता है, संसार नहीं। अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि वह संसार के हित के लिये ही सब कर्म करे और बदले में उनका कोई फल न चाहे। इस प्रकार आसक्तिरहित होकर अर्थात् मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिये, इस भावे संसार के लिये कर्म करने से संसार से स्वतः सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।

कर्मयोगी संसार की सेवा करने से वर्तमान की वस्तुओं से और कुछ न चाहने से भविष्य की वस्तुओं से सम्बन्ध विच्छेद करता है।

मेले में स्वयंसेवक अपना कर्तव्य समझ कर दिनभर यात्रियों की सेवा करते हैं और बदले में किसी से कुछ नहीं चाहते; अतः रात्रि में सोते समय उन्हें किसी की याद नहीं आती। कारण कि सेवा करते समय उन्होंने किसी से कुछ चाहा नहीं। इसी प्रकार जो सेवा भाव से दूसरों के लिये ही सब कर्म करता है और किसी से मान, बड़ाई आदि कुछ नहीं चाहता, उसे संसार की याद नहीं आती। वह सुगमतापूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है।

कर्म तो सभी किया करते हैं, पर कर्मयोग तभी होता है, जब आसक्तिरहित होकर दूसरों के लिये कर्म किये जाते हैं। आसक्ति शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म करने से ही मिट सकती है—'धर्म तें बिरति' (मानस ३ । १६ । १) । शास्त्र निषिद्ध कर्म करने से आसक्ति कभी नहीं मिट सकती।

'परमाप्नोति पूरुषः '– जैसे तेरहवें अध्याय के चौंतीसवीं श्लोक में भगवान्ने 'परम्' पदसे सांख्ययोगी के परमात्मा को प्राप्त होने की बात कही, ऐसे ही यहाँ 'परम्' पद से कर्मयोगी के परमात्मा को प्राप्त होने की बात कहते हैं। तात्पर्य यह है कि साधक (रुचि, विश्वास और योग्यता के अनुसार) किसी भी मार्ग-कर्मयोग, ज्ञानयोग या भक्तियोग पर क्यों न चले, उसके द्वारा प्राप्तव्य वस्तु एक परमात्मा ही हैं (गीता- पाँचवें अध्याय का चौथा-पाँचवाँ श्लोक) । प्राप्तव्य तत्त्व वही हो सकता है, जिसकी प्राप्ति में विकल्प, सन्देह और निराशा न हो तथा जो सदा हो, सब देश में हो, सब काल में हो, सभी के लिये हो, सबका अपना हो और जिस तत्त्व से कोई कभी किसी अवस्था में किंचिन्मात्र भी अलग न हो सके अर्थात् जो सबको सदा अभिन्न रूप से स्वतः प्राप्त हो ।

शंका-कर्म करते हुए कर्मयोगी का कर्तृत्व अभिमान कैसे मिट सकता है? क्योंकि कर्तृत्व अभिमान मिटे बिना परमात्म तत्त्व का अनुभव नहीं हो सकता।

समाधान - साधारण मनुष्य सभी कर्म अपने लिये करता है। अपने लिये कर्म करने से मनुष्य में कर्तृत्वाभिमान रहता है। कर्मयोगी कोई भी क्रिया अपने लिये नहीं करता। वह ऐसा मानता है कि संसार से शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, रुपये आदि जो कुछ सामग्री मिली है, वह सब संसार का ही है, अपनी नहीं। जब कभी अवसर मिलता हैं, तभी वह सामग्री, समय, सामर्थ्य आदि को संसार की सेवामें लगा देता है, उनको संसार की सेवा में लगाते हुए कर्मयोगी ऐसा मानता है कि संसारकी वस्तु ही संसार की सेवा में लगा रहा हूँ अर्थात् सामग्री, समय, सामर्थ्य आदि उ उन्हीं के हैं, जिनकी सेवा हो रही है। ऐसा मानने से कर्तृत्व अभिमान नहीं रहता।

कर्तृत्व में कारण है— भोक्तृत्व कर्मयोगी भोग की आशा रखकर कर्म करता ही नहीं। भांग की आशा वाला मनुष्य कर्मयोगी नहीं होता। जैसे अपने हाथों से अपना ही मुख धोने पर यह भाव नहीं आता कि मैंने बड़ा उपकार किया है; क्योंकि मनुष्य हाथ और मुख दोनों को अपने ही अंग मानता है, ऐसे ही कर्मयोगी भी शरीर को संसार का

ही अंग मानता है। अतः यदि अंगने अंगीकी ही सेवा की है तो उसमें कर्तृत्वाभिमान कैसा ? यह नियम है कि मनुष्य जिस उद्देश्य को लेकर कर्म में

प्रवृत्त होता है, कर्म के समाप्त होते ही वह उसी लक्ष्य में तल्लीन हो जाता है। जैसे व्यापारी धनके उद्देश्य से ही व्यापार करता है, तो दूकान बंद करते ही उसका ध्यान स्वतः रुपयों की ओर जाता है और वह रुपये गिनने लगता है। उसका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि आज कौन कौन ग्राहक आये? किस-किस जाति के आये? आदि आदि। कारण कि ग्राहकों से उसका कोई प्रयोजन नहीं। 

संसार का उद्देश्य रखकर कर्म करनेवाला मनुष्य संसारमें कितना ही तल्लीन क्यों न हो जाय, पर उसकी संसार से एकता नहीं हो सकती; क्योंकि वास्तव में संसार में एकता है ही नहीं। संसार प्रतिक्षण परिवर्तनशील और जड है, जबकि 'स्वयं' (अपना स्वरूप) अचल और चेतन है। परन्तु परमात्मा का उद्देश्य रखकर कर्म करने वाले को परमात्मा की एकता हो ही जाती है (चाहे साधक को इसका अनुभव हो या न हो); क्योंकि 'स्वयं' की परमात्मा के साथ स्वतःसिद्ध (तात्त्विक) एकता है। इस प्रकार जब कर्ता ‘कर्तव्य' बनकर अपने उद्देश्य- (परमात्मतत्त्व-) के साथ एक हो जाता है, तब कर्तृत्वाभिमानका प्रश्न ही नहीं रहता।

 

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