मित्रों जीवन में यूं तो अनेक उद्देश्य होते हैं। लेकिन जीवन का वास्तविक उद्देश्य सत्य को जानना है।
सत्य को जाने बिना जीवन व्यर्थ है। सत्य नहीं जानोगे तो जन्म मरण का चक्कर चलता रहेगा। प्रकृति इस जन्म मरण के चक्कर में घूमती रहेगी. आप को सिखाने के लिए जीवन में उतार-चढ़ाव लाती रहेगी। इसलिए सत्य का साक्षात्कार बहुत आवश्यक है।
सत्य के साक्षात्कार के बाद जीवन मरण का चक्र खत्म हो जाता है। दुखों से मुक्ति मिल जाती है। जीवन के उद्देश्यों को समझने के लिए सत्य को जानने के लिए गुरु का आश्रय लेना बहुत आवश्यक है। इसके बारे में भगवान श्री कृष्ण ने गीता में दिव्य ज्ञान दिया है। श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप के अनुसार भक्तिवेदांत स्वामी प्रभुपाद कहते हैं-
तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया।
उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः।।
तुम गुरु के पास जाकर सत्य को जानने का प्रयास करो। उनसे विनीत होकर जिज्ञासा करो और उनकी सेवा करो स्वरूपसिद्ध व्यक्ति तुम्हें ज्ञान प्रदान कर सकते हैं, क्योंकि उन्होंने सत्य का दर्शन किया है।
अनुवाद तात्पर्य-
निस्सन्देह आत्म-साक्षात्कार का मार्ग कठिन है। अतः भगवान् का उपदेश है कि उन्हीं से प्रारम्भ होने वाली परम्परा से प्रामाणिक गुरु की शरण ग्रहण की जाए। इस परंपरा के सिद्धांत का पालन किये बिना कोई प्रामाणिक गुरु नहीं बन सकता।
भगवान आदि गुरु हैं, अतः गुरु-परम्परा का ही व्यक्ति अपने शिष्य को भगवान का सन्देश प्रदान कर सकता है। कोई अपनी निजी विधि का निर्माण करके स्वरूपसिद्ध नहीं बन सकता जैसा कि आजकल के मूर्ख पाखंडी करने लगे हैं।
भागवत का कथन है- धर्म तु साक्षात् भगवत प्रणीतम् - धर्मपथ का निर्माण स्वयं भगवान ने किया है। अतएव मनोधर्म या शुष्क तर्क से सही पद प्राप्त नहीं हो सकता। न ही ज्ञान ग्रंथों के स्वतंत्र अध्ययन से ही कोई आध्यात्मिक जीवन में उन्नति कर सकता है।
ज्ञान प्राप्ति के लिए उसे प्रामाणिक गुरु की शरण में जाना ही होगा। ऐसे गुरु को पूर्ण समर्पण करके ही स्वीकार करना चाहिए और अहंकाररहित होकर दास की भाँति गुरु की सेवा करनी चाहिए।
स्वरूप सिद्ध गुरु की प्रसन्नता ही आध्यात्मिक जीवन की प्रगति का रहस्य है। जिज्ञासा और विनीत भाव के मेल से आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है। बिना विनीत भाव तथा सेवा के विद्वान गुरु से की गई जिज्ञासाएँ प्रभावपूर्ण नहीं होंगी।
शिष्य को गुरु-परीक्षा में उत्तीर्ण होना चाहिए और जब वह शिष्य में वास्तविक इच्छा देखता है तो स्वतः ही शिष्य को आध्यात्मिक ज्ञान का आशीर्वाद देता है। इस श्लोक में अन्धानुगमन तथा निरर्थक जिज्ञासा- इन दोनों की भर्त्सना की गई है।
शिष्य न केवल गुरु से विनीत होकर के सुने, अपितु विनीत भाव तथा सेवा और जिज्ञासा द्वारा गुरु से स्पष्ट ज्ञान प्राप्त करें। प्रामाणिक गुरु स्वभाव से शिष्य के प्रति दयालु होता है, अतः यदि शिष्य विनीत हो और सेवा में तत्पर रहे तो ज्ञान और जिज्ञासा का विनिमय पूर्ण हो जाता है।
अब सवाल उठता है कि आज के समय में ऐसा गुरु कौन है जो सत्य का साक्षात्कार करा दे। आज दिव्य रूप में सद्गुरु श्री रामलाल सियाग अपने संजीवनी मंत्र से 15 मिनट में कुंडलिनी जागरण द्वारा व्यक्ति को सत्य के मार्ग पर उन्मुख कर रहे हैं। गुरु सियाग का मंत्र कहीं से भी लिया जा सकता है यह पूर्णतया निशुल्क है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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