कालसर्प योग एक ऐसा योग है जिससे जिंदगी में कई तरह की परेशानियां आती हैं।
क्या आप जानते हैं कि राहु केतु से कालसर्प दोष कैसे पैदा होते हैं नहीं जानते हैं तो आज हम आपको बताएंगे।
वैदिक रूप से विचार करें, तो राहु का अधिदेवता काल और प्रति अधिदेवता सर्प है, जबकि केतु का अधिदेवता चित्रगुप्त एवं प्रति अधिदेवता ब्रह्माजी हैं। इससे भी यही स्पष्ट होता है कि राहु का दाहिना भाग काल एवं बायाँ भाग सर्प है।
इसीलिए राहु से केतु की ओर कालसर्प योग बनता है ना कि केतु से राहु की ओर, और राहु एवं केतु की गति वाम मार्गी होने से यह भी स्पष्ट होता है कि जैसे सर्प सिर्फ अपने बाईं ओर ही मुड़ता है, वह दाईं ओर कभी नहीं मुड़ता।
राहु और केतु सर्प ही है और सर्प के मुँह में ही जहर होता है धड़ में नहीं। कालसर्प योग से सम्बन्धित जन्मांकों के अध्ययन करने पर यह दिखाई पड़ता है कि कुछ काल सर्प योग से युक्त जातक असहनीय कष्टों को झेल रहे हैं और कुछ उत्तरोतर समृद्धि प्राप्त कर रहे हैं। इससे यह विदित होता है कि काल रूपी सर्प राहु-केतु जिसके ऊपर प्रसन्न हैं, उसके लिये वह सब सुख सहज में उपलब्ध करा देते हैं|
जो साधारण व्यक्तियों को अथक परिश्रम करने पर भी सुलभ नहीं हो पाता और यदि सर्प क्रोधित हो जाये, तो मृत्यु या मृत्यु तुल्य कष्ट दे देता है। मनुष्य के शरीर की मृत्यु तो अवश्यभावी है, उसे कोई नहीं टाल सकता; परन्तु सुख की मृत्यु, समृद्धि की मृत्यु, कीर्ति की मृत्यु आदि मृत्यु तुल्य कष्ट है|
जो जीवित व्यक्ति को मृत्यु से अधिक पीड़ादायक है। व्यक्ति जब पद प्रतिष्ठा, पैसा, परिवार आदि के मद में चूर हो जाता है, तब वह अपने सम्माननीय पिता-माता, पितर तथा आश्रित अन्य लोगों को सम्मान न देकर उनसे स्वयं सम्मान कराने की इच्छायें रखता है और उन्हें मानसिक रूप से दुखी करता है। उसी का प्रभाव अगले जन्म में काल सर्प योग के रूप में आता है।
इसलिये जो जातक अपने माता-पिता, पितरों आदि की यथा शक्ति सेवा करते हैं; उन्हे काल सर्प योग अनुकूल हो सुखी बनाता है और जो व्यक्ति इसके विपरीत अपने माता-पिता, पितृ गण आदि को कष्ट देते हैं, उन्हे काल सर्प योग प्रतिकूल फल देकर दुखी एवं कष्टमय जीवन जीने को बाध्य कर देता है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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