Published By:दिनेश मालवीय

महाभारत युद्ध में कितने लोगों ने भाग लिया था, कौरवों के सभी सेनापति उनकी हार चाहते थे.. दिनेश मालवीय

महाभारत युद्ध में कितने लोगों ने भाग लिया था, कौरवों के सभी सेनापति उनकी हार चाहते थे.. दिनेश मालवीय क्या आप जानते हैं कि, महाभारत युद्ध में कितने लोगों ने भाग लिया था, आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि, कौरवों के सभी सेनापति उनकी हार चाहते थे,  आखिर वे ऐसा क्यों चाहते थे,  मानवता का इतिहास युद्धों से भरा पडा है. ऐसा कोई समय नहीं रहा, जब कहीं न कहीं कोई युद्ध नहीं हो रहा हो. किसी ने कहा है कि दो युद्धों के बीच का समय युद्ध की तैयारी का होता है. पिछले हम बता चुके हैं कि, महाभारत जैसा महायुद्ध मानवता के इतिहास में कोई दूसरा नहीं हुआ. आधुनिक समय में जो बड़े युद्ध हुए हैं, वे महाभारत युद्ध की तुलना में कुछ भी नहीं हैं. इस महायुद्ध के सम्बन्ध में बहुत सी ऐसी बातें हैं जिनके बारे में आप अवश्य जानना चाहेंगे 

 यह सभी लोगों के लिए एक बड़ी जिज्ञासा का विषय रहा है कि, इस महाविनाशकारी युद्ध में कितने लोगों ने भाग लिया ? महाभारत ग्रन्थ के अनुसार, इस युद्ध में कौरवों के पास 11 अक्षौहिणी और पाण्डवों के पास 7 अक्षौहिणी सेना थी. इस गांठ के अनुसार इक अक्षौहिणी सेना में 21 हज़ार 870 रथ, इतनी ही संख्या में हाथी, 1 लाख 1 हज़ार 935 पैदल सैनिक और 65 हज़ार 610 घोड़े होते थे. इस हिसाब से कौरवों की सेना में 23 लाख 24 हज़ार 135लोग शामिल थे  पाण्डवों की सेना 7 अक्षौहिणी थी. लिहाजा इसमें 7 लाख 13 हज़ार 545 पैदल और 4 लाख 59 हज़ार 270 घोड़े थे l इनकी संख्या 14 लाख 78 हज़ार 99 होती है. इस प्रकार दोनों पक्षों से 38 लाख से अधिक लोगों ने सक्रिय भाग लिया था. इनमें वे लोग शामिल नहीं हैं, जो दूसरी व्यवस्थाओं में लगे थे  अब हम आपको प्रमाण के साथ यह बात बताने जा रहे है कि कौरवों के सभी सेनापति उनकी पराजय चाहते थे.

 वे ऐसा क्यों चाहते थे, यह भी बताएँगे l कौरवों के सभी सेनापति उनकी हार चाहते थे : जैसा कि हम पहले कह आये हैं, यह युद्ध कई मायनों में बहुत अनूठा था l कौरव पक्ष को अधर्मी और असत्य कहा गया l फिर भी कौरवों के साथ अधिक राजा और उनकी सेनायें थीं l बड़ी अजीब बात है कि जिस पक्ष को सत्य माना गया उसके साथ कम लोग थे. शायद इसीलिए कहा जाता है कि सत्य सदा अल्पमत में रहता है l इस युद्ध की एक सबसे बड़ी विशेषता यह भी है कि इसमें उस युग के सबसे महान योद्धा कौरवों यानी असत्य के पक्ष में लड़ रहे थे. इनमें अपराजेय भीष्म पितामह, युद्ध में किसी से नहीं हारने वाले गुरु द्रोणाचार्य, महाप्रतापी अंगराज कर्ण, युद्धकुशल मद्र नरेश महाराज शल्य, कृपाचार्य, अश्वत्थामा आदि शामिल थे. 

महाभारत युद्ध अट्ठारह दिन चला. पहले दस दिन तक भीष्म पितामह कौरवों के सेनापति थे. इसके बाद पांच दिन तक गुरु द्रोणाचार्य सेनापति रहे. उनके वध के बाद कर्ण सेनापति बना, जो दो दिन ही इस जिम्मेदारी को निभा पाया और अर्जुन के हाथों मारा गया. इसके बाद मद्र नरेश महाराज शल्य सेनापति बने और वह आधे ही एक सेनापति रहे. इसके विपरीत पाण्डव सेना का सबसे बड़ा आधार महान धनुर्धर अर्जुन और महाबली भीम ही थे. ये दोनों महावीर कौरवों के उक्त चार में से प्रथम दो महायोद्धाओं के सामने कुछ भी नहीं थे.

 पाण्डवों के पक्ष में सबसे बड़ी निर्याणक बात यह थी कि उनके साथ योग्योगेश्वर श्रीकृष्ण थे. परन्तु इसमें भी सबसे विचित्र बात यह है कि वह पाण्डवों के साथ तो थे, लेकिन उन्होंने इस युद्ध में शस्त्र नहीं उठाने की शपथ ली थी. इस सन्दर्भ में एक और बड़ी विचित्र बात यह है कि, श्रीकृष्ण की सेना कौरवों के पक्ष में युद्ध कर रही थी.है न बहुत विचित्र बात! क्या ऐसा कभी इतिहास के किसी अन्य युद्ध में हुआ है कि किसी सेना का स्वामी एक पक्ष में हो और सेना दूसरे पक्ष में. लेकिन यही महाभारत की खूबी है. अब एक और बहुत महत्वपूर्ण तथ्य की ओर चलते हैं, जो इतिहास में कहीं नहीं सुनी कही और शायद भविष्य में भी ऐसा नहीं हो. 

किसी भी सेनापति की कोशिश यह रहती है कि उसकी सेना युद्ध जीते. लेकिन महाभारत में एकदम उल्टा हुआ. इसमें कौरवों के चारों सेनापति अपनी सेना की पराजय के लिए  काम करते रहे. प्रथम सेनापति भीष्म पितामह ने तो युद्ध शुरू होने से पहले ही घोषणा कर दी थी कि वह किसी पाण्डव का वध नहीं करेंगे.सिर्फ उनकी सेना को मारेंगे. यह कितनी अजीब बात थी कि जिन पाण्डवों के विरुद्ध युद्ध हो रहा था, उन्हें ही नहीं मारने की शत्रु पक्ष के सेनापति ने घोषणा कर दी. लेकिन दुर्योधन की मजबूरी यह थी कि पितामह के रहते वह किसी  और को सेनापति नहीं बना सकता था. दस दिन सेनापति रहते हुए पितामह ने एक भी पाण्डव का वध करने का प्रयास नहीं किया. इससे परेशान होकर जब दुर्योधन ने उन्हें बहुत अपमानित और प्रताड़ित किया तो उन्होंने पाण्डवों का वध करने की शपथ ली

. लेकिन उसके एक दिन पहले ही अपनी मृत्यु का उपाय भी पाण्डवों को बता दिया. इसका मतलब साफ़ है कि पितामह न तो पाण्डवों  की पराजय चाहते थे और न उनकी मृत्यु. इस तरह वह युद्ध से हट गये. इसके बाद पांच दिन तक गुरु द्रोणाचार्य कौरव सेना के सेनापति रहे. उन्होंने ने भी कभी पाण्डवों का वध करने का प्रयास नहीं किया. बहरहाल, उन्होंने दुर्योधन के बहकावे में आकर अभिमन्यु के अनीतिपूर्ण वध में भाग लिया, लेकिन वह पूरी तरह दुर्योधन के पक्ष  में कभी नहीं रहे. जब उन्होंने दुर्योधन के उकसावे पर युधिष्ठिर को बंदी बना ने शपथ ली, जिससे पाण्डवों की हार हो जाती. लेकिन इस  शपथ का पालन करने में उन्होंने ढिलाई बरती. उन्हें रोने की क्षमता सिर्फ अर्जुन में थी. लिहाजा वह युधिष्ठिर के पास जाने से पहले अर्जुन के आने की प्रतिक्षा करते रहे. इसके पहले वह सिर्फ युद्ध का उपक्रम ही करते रहे. अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु की खबर सुनकर उनका शस्त्र डाल देना तर्कसंगत बात तो लगती है, लेकिन इससे भी ज्यादा तर्कसंगत बात यह होती कि वह दो गुनी ताकत से लड़कर उसके वध का प्रतिशोध लेते. 

लेकिन ऐसा लगता है कि, वह स्वयं की युद्ध से अलग हो जाना चाहते थे. उनके शास्त्र नीचे रखते ही पाण्डव सेनापति धृष्टदयुम्न ने उनकी गर्दन काट दी. इसके बाद अंगराज कर्ण कौरव सेना का सेनापति बना. उसके युद्धभूमि में उतरने के एक पहले रात को श्रीकृष्ण ने उसे यह रहस्य बता दिया था कि वह पाण्डवों का सबसे बड़ा भाई है. उसने युद्ध तो जमकर किया, लेकिन उसने चार पाण्डवों को जीवनदान दिया. एक दिन तो उसने अर्जुन के साथ द्वंद्व में उसे हरा भी दिया लेकिन जीवित वापस जाने दिया. दूसरे दिन उसने अर्जुन से वैसा युद्ध नहीं किया, जैसी उससे उम्मीद की जाती थी. इस प्रकार वह भी किसी न किसी तरह पाण्डवों की विजय चाहता था. 

वह बहुत बड़े वीर तो थे, लेकिन अर्जुन-भीम  के सामने उनकी कोई बिसात नहीं थी. वह भी अनमने ढंग से युद्ध करते हुए मारे गए. कौरव सेनापतियों ने ऐसा क्यों किया : सहज सवाल उठता है कि कौरवों के सेनापतियों ने ऐसा क्यों किया होगा? इसका कारण  यही  लगता  है कि, वे किसी मजबूरी में कौरवों के पक्ष में लड़ने  तो गए,लेकिन वह दिल से पाण्डवों के पक्ष तो सही मानते थे. हालाकि उनके सामने यह विकल्प रहा था कि वे पाण्डवों की  तरफ से लड़ते.लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. बाद में शायद उन्हें अपनी गलती का अहसास हुआ होगा. लिहाजा उन्होंने यह रणनीति अपनाकर सत्य को विजय दिलवा दी. इस प्रकार कोई यह कह सकता है कि, दुर्योधन के साथ बहुत बड़ा धोखा हुआ. लेकिन वह इसी लायक था. उसने तो जीवन भर धोखे के अलावा कुछ  किया ही नहीं. अस्तित्व ने उसे उसके ही दांव से पराजित करवा दिया.

 

धर्म जगत

SEE MORE...........