भूर्भुव: स्वर्महश्चैव जनश्च तप एव च । सत्यलोकश्च सप्तैते लोकस्तु परिकीर्तिताः ॥
पूर्वपक्ष (अग्निपुराण)..
परलोक की कल्पना आद्य मानव में तथा सभी धर्मों में दृष्टिगोचर होती है। पर हिंदू संस्कृति में इस विषय में जैसी मत विचित्रता, कल्पना की सूक्ष्मता और व्यापक दृष्टि देख पड़ती है, वैसी अन्य धर्मों में नहीं देख पड़ती। हिंदू संस्कृति में इसकी जितनी विविधता है, उतनी ही गूढ़ता है।
आधुनिक संस्कृति का यह दावा है कि मनुष्य को इसी लोक का विचार करना चाहिये, परलोक का विचार करना व्यवहार की दृष्टि से अपनी बुद्धि और समय का केवल अपव्यय करना है। परमार्थ की दृष्टि से परलोक का विचार करना चित्त की विक्षिप्तता मात्र है। नव संस्कृति ने इस विश्व को मानो आधिभौतिक और आध्यात्मिक — इन्हीं दो भागों में बाँटा है।
आधियाज्ञिक और आधिदैविक विभागों को मानने की ओर उसकी प्रवृत्ति नहीं देखनी पड़ती। परलोक की कल्पना प्रायः मरणोत्तर स्थिति- सापेक्ष ही मानी जाती है। पर जीव की मरणोत्तर-सत्ता के विषय में ही जब मन निःसन्देह नहीं है, तब 'आप मरे, जग डूबा' जैसी वृत्ति ही जीव की बन जाती है। और उसमें परलोक के विषय में कोई आस्था नहीं रहती।
मृत्यु एक बहुत ही अशुभ घटना है, इस कारण इस विषय की चर्चा को एक प्रकार का तिरस्करणीय अमांगल्य प्राप्त हुआ है। इसके सिवा, व्यावहारिक उपयुक्ततावाद और स्थूल स्वार्थ ही नवयुग का प्रेरक होने के कारण मरणोत्तर शून्यावस्था की ओर आज कोई झाँकना भी नहीं चाहता।
ऐकान्तिक विचार परलोक के सम्बन्ध में नास्तिक अथवा ब्रह्म आत्मनिष्ठ विचार हिंदू समाज में पहले किसी समय न रहे हों - ऐसी बात नहीं है। चार्वाक दर्शन और वेदान्त दर्शन प्राचीन हिंदू-संस्कृति के दो चरम बिन्दु हैं। अजित केशकंबली और लोकायतन के मतानुसार परलोक है ही नहीं। न स्वर्गो नापवर्गो वा नैवात्मा पारलौकिकः ।
(चार्वाक दर्शन) केवलाद्वैतियों के अजातवाद के अनुसार भी परलोक संचरण घटाकाशके गमनागमन के समान अविद्यात्मक भ्रम है'। इसी प्रकार तृण की जॉक दूसरे तृण का आधार मिले बिना पहले तिनके को नहीं छोड़ती—इस तृणजलूकान्याय से जीव आगे का शरीर (जन्म) मिले बिना पूर्व शरीर नहीं छोड़ता, इस बृहदारण्यक के दृष्टान्त परलोकवाद अर्थात परलोक गमन वाद आपाततः बाधित होता-सा दिखता है।
महाभारत के सनत्सुजात पर्व में मृत्यु की ही सत्ता नहीं है। अपने स्वरूप के विषय में अज्ञान को ही मृत्यु कहा है। इसी प्रकार भागवत में मृत्यु नाम आत्यन्तिक विस्मृति का है। योगवासिष्ठ में कहा है कि परलोक-संचार प्रत्येक मृत आत्मा की मृत्यु स्वरूप महानिद्रा का पृथक् स्वप्न है। विशुद्ध वेदांत ब्रह्म की सत्ता पारमार्थिक और अन्य सबकी प्रातिभासिक (भ्रम रूप) मानते हैं।
परलोक-सत्ता:
परंतु आधुनिक जगत के अश्रद्धालु धर्मनिरपेक्षवाद से अथवा प्राचीन जगत् के पारमार्थिक ऐकान्तिक विचारों से परलोक की व्यावहारिक सत्ता मेटी नहीं जा सकती। जिस तरह इहलोक है, उसी तरह परलोक भी है। जैसे दृश्य है, वैसे ही अदृश्य भी होना ही चाहिए और वह है ही। और तो क्या, दृश्य की अपेक्षा अदृश्य का, इहलोक की अपेक्षा परलोक का विस्तार बहुत अधिक है|
यह बात परम्परा से प्रसिद्ध है और युक्ति सिद्ध भी। अब इस परलोक का स्वरूप निश्चित, संख्या निश्चित और स्थान निश्चित किस प्रकार किया जाए- यह प्रश्न अति गूढ़ और जटिल है। परलोक चाहे कैसे भी हों, कितने भी हों और कहीं हों- वे जब हैं, उनकी व्यावहारिक सत्ता है और प्रत्येक जीव को मृत्यु के बाद उन लोकों में जाना ही पड़ता है। तब उन ज्ञात अज्ञात परलोकों का विचार दृष्टि के सामने रखने को व्यर्थ और निन्द्य समझना समझदारी का परिचय देना नहीं है।
भौतिक जडवादी और कट्टर वेदान्ती भले ही इस विषयमें जो चाहें कहा करें। परलोक के सम्बन्ध में हिंदू संस्कृत का सम्पूर्ण विवरण एक बड़े ग्रन्थ में भी पूरा नहीं होगा। तथापि इस छोटे से लेख में उसकी कुछ विशिष्ट बातों का उल्लेख मात्र किया जाता है।
वैदिक त्रैलोक्य:
परलोक के सम्बन्ध में इह और पर, इस प्राथमिक। द्वन्द्व के समान पृथ्वी और द्यौ- ये दो ही लोक वेदों में [ पहले आते हैं। स्वर्ग और मृत्यु, द्यावापृथिवी- यह द्वैत ही वेदों में पहले देख पड़ता है। विश्व के माँ-बाप ये ही हैं। इन द्वन्द्वों में से ही मध् ` अंतरिक्ष रूप तीसरा लोक आप ही सिद्ध हुआ। इस प्रकार त्रैलोक्य की भावना रूढ़ हुई। मातृत्व का पद तब अंतरिक्ष रूप अथवा आकाश रूप अदिति को प्राप्त हुआ।
वामन के तीन विक्रम द्यौ, पृथिवी और अंतरिक्ष - ये न तीन लोक ही हैं। वेदों के मंत्र भाग में परलोक के सम्बन्ध में त्रैलोक्य भावना ही मुख्य है। ऐतरेय ब्राह्मण में इन्हीं को भूः, भुवः, सुवः कहा है। ये उत्तरोत्तर क्रम से अधिकाधिक श्रेष्ठ हैं।
वेदों के संहिता भाग में जीवों के मरणोत्तर गमन के देवयान और पितृयान, दो मार्ग बताये गये हैं। इसी प्रकार उसमें पाताल, अगाध स्थान अथवा नरक, यमलोक, पितृलोक वरुण लोक, सूर्य लोक, भुवन आदि के उल्लेख प्रसंग से हुए हैं; पर मुख्य भावना त्रैलोक्य की ही दिखती है।
(लेखक - डॉ० सदाशिव कृष्ण फड़के)
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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