 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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भगवान श्री शंकर के 'रुद्राध्याय' तथा 'मृत्युंजय' महामंत्र भारत के कोने-कोने में अभिषेक किया जाता है। श्रावण में तो इसकी बहार देखने ही योग्य होती है। हम आज यहाँ उसी 'मृत्युञ्जय' महा मन्त्र की अर्थ-गंभीरता पर कुछ विचार करते हैं। यह विचार निश्चय ही परम पुण्यप्रद है।
ॐ हौं जूं सः । ॐ भूर्भुवः स्वः । ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् । स्वः भुवः भूः ॐ । सः जूँ हौं ॐ 1-
यह सम्पुटयुक्त मंत्र है।
जसवंत राय जयशंकर के अनुसार
ॐकारका प्रतीक शिवलिङ्ग है, उसीके ऊपर अविच्छिन- "अनवरत जलधाराके प्रवाहवत् अपनी दृष्टि स्थिर करते हुए विश्वासपूर्वक मृत्युञ्जय महामन्त्रका जप करता रहे तो ध्यानावस्था प्रत्यक्ष खड़ी हो जाती है और एक विलक्षण आनन्दकी अनुभूति होती है।
सृष्टि के आदि, मध्य और अन्त - तीनों 'हाँ' और 'जूँ'- से अपने समक्ष उपस्थित करते हुए त्रिलोकी में जप करने वाला व्यक्ति श्रीत्र्यम्बकेश्वरके प्रति अपने-आपका समर्पण कर रहा है। त्र्यम्बकेश्वर कृपा रूपी सुगंध फैल रही है और उपवास के रोम-रोम में ऐसी स्फूर्ति होने लगती है कि उसका आध्यात्मिक प्रभाव छिप नहीं सकता। इन्द्रायण (तुंबे)-की बेल सूख जाने पर फल बन्धन से मुक्त होकर आस पास की अनन्तता में छिप जाता। है, उसी प्रकार जप करने वाला उपासक अपनी मोक्ष की अवस्था को प्रत्यक्ष कर सकता है।
'एकोऽहं बहु स्याम्' – परब्रह्म की यह इच्छा होती है,
और महाप्राण की अलौकिक गति प्रस्तुत होती है। उसका सूचन महाप्राण अक्षर 'ह' से होता है। प्रकृति विकृत होने लगे, पंचतन्मात्रा उद्भूत हों, शब्द गुण आकाश सृष्टि को झेलने के लिये। तत्पर हो जाए, उस दृश्य का आभास 'औं' की ध्वनि करा रही है। ज्- जन्म, ऊ- उद्भव-विकास- विस्तार, शून्य, प्रलय इस प्रकार 'जूँ' सृष्टि की तीनों अवस्थाओं का दिग्दर्शन कर रहा है। सः पुरुषः = विराट—यही तो प्रलय के समय अवशिष्ट रहता है। 'पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्' के साथ ‘यथापूर्वमकल्पयत्' इन वाक्यों का स्मरण ऐसे समय क्यों नहीं होगा? ऐसी सृष्टि 'भूर्भुवः स्वः' की त्रिलोकी है। उस त्रिलोकी का निवासी उपासक त्र्यम्बकेश्वर के सामने जप यज्ञ कर रहा है और फलस्वरूप वह सहज ही अपुनरावृत्तिवाली मुक्ति प्राप्त करता है।
ऊपर कहा गया है कि शिवलिंग ॐकार का प्रतीक है, वह कैसे है - यह जानने के लिये 3, ॐ के इन तीन भागों पर विचार करें। उपासक पूर्वाभिमुख बैठता है। जल झेलने वाला भाग 'उ' उत्तर दिशा की ओर जल को बहाकर ले जाता है। 'ॐ' यह भाग आधार है, जो जलहरी को ऊँचे उठाये रहता है। यह भाग लिङ्ग के रूप में ऊपर को विराजमान रहता है। किसी भी शिव मंदिर में जाकर पूर्वाभिमुख रह कर इस दृश्य का साक्षात्कार किया जा सकता है।
 
 
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