Published By:दिनेश मालवीय

सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए ग्रंथों के साथ छेड़खानी, गलत-सही का पता कैसे लगाएँ..

सनातन धर्म को बदनाम करने के लिए ग्रंथों के साथ छेड़खानी, गलत-सही का पता कैसे लगाएँ.. दिनेश मालवीय व्हाट्सएप पर एक वीडियो देखने में आया, जिसमें एक युवक ने अपने शहर में हुए एक षडयंत्र के बारे में बताया. वहाँ लगभग बीस लोग श्रीमदभगवतगीता का कवर चढ़ी एक किताब बेंच रहे थे. इसमें भगवतगीता की कोई बात नहीं थी. इसके भीतर ऐसी बहुत बुरी बातें लिखी थीं, जिनसे सनातन हिन्दू धर्म की बदनामी हो. वे लोग कम पढ़े-लिखे लोगों की बस्ती में यह किताब बेंच रहे थे. कुछ लोगों की नज़र में यह बात आने के बाद वे रफूचक्कर हो गये. 

भगवतगीता की प्रतिष्ठा इतनी है कि इसका नाम सुनकर ही कोई व्यक्ति इसे खरीदने को तैयार हो जाता है. वह भले ही उसे पढ़े नहीं या पढ़ नहीं सकता हो, लेकिन वह उसे खरीदकर घर में ज़रूर रखना चाहता  है. यदि घर बैठे कोई इसे बेंचने आ जाए, तो फिर उसे खरीदने की इच्छा हो ही जाती है. उन लोगों ने इस किताब की कीमत भी बहुत कम रखी थी. सनातन धर्म के लगभग सभी ग्रंथों के साथ सदियों से छेड़छाड़ की जाती रही है. जब जिस विचारधारा का बोलबाला रहा, तब ग्रंथों में उसके अनुसार बातें जोड़ या निकाल दी जाती रही हैं. कई जगहों पर स्वार्थी तत्वों ने भी ऐसा किया है. कोई भी ग्रंथ इससे अछूता नहीं रहा. 

हमारे देश में ऐसे जोड़-घटाने को रोकने या उसकी सर्वमान्य समीक्षा की कोई संस्थागत व्यवस्था नहीं रही. इसीका लाभ उठाकर ग्रंथों सेबहुत शरारतें होती रहीं. इस तरह से जोड़ी गयी या बदल दी गयी बातों को फिर लोगों के सामने इस तरह प्रस्तुत किया जाता रहा, जिससे उनके मन में ग्रन्थ के प्रति श्रद्धा ही नहीं नफरत की भावना पैदा हो जाए. इसी तरह, वर्ण व्यवस्था को लेकर बहुत गलत बातें फैलायी गयीं. कुछ बातों पर यदि ध्यान दिया जाये, तो बात बहुत स्पष्ट हो जाती है. इसके लिए भारत के मूल जीवनदर्शन, धर्मदर्शन और सांस्कृतिक दर्शन को गहराई से समझने की ज़रूरत है. थोड़ा विचार किया जाए कि, जिस देश में युगों पहले यह कहा गया हो कि, “जन्म से सभी शूद्र पैदा होते हैं, संस्कारों से कोई व्यक्ति द्विज यानी ब्राह्मण हो जाता है”. 

यह भी कहा गया कि,”सभी जीवों में एक ही चेतना व्याप्त है”. “सारा विश्व एक परिवार है”. “एक ही सत्य को विद्वान अनेक तरह से कहते हैं”.“व्यक्ति कुल से नहीं कर्मों से ब्राह्मण या शूद्र होता है”. इसी तरह अनेक श्लोक हमारे शास्त्रों में मिलते हैं. ऎसी स्थिति में कुल और वर्ण के अनुसार कोई भी शास्त्र कैसे भेद कर सकता है ? भारत के धर्मशास्त्रों में अनेक ऐसे प्रसंग मिलते हैं, जिनमें यह स्पष्ट हुआ है कि ब्राह्मण कुल में जन्म लेने वाले कई लोग अपने बुरे कर्मों से शूद्र या दानव हो गये. इनमें हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष, रावण, कुम्भकरण आदि शामिल हैं. इसके विपरीत ऐसे लोगों की कमी नहीं जो ब्राह्मण कुल में नहीं जन्में लेकिन अपने कर्मों से ब्राह्मणत्व पाकर पूज्य बन गये.

 इनमें वाल्मीकि, शबरी, भक्त रैदास, सदन कसाई, कबीर सहित अनेक संत शामिल हैं. सनातन धर्म का महावाक्य है कि “आचार ही धर्म है”. जिस व्यक्ति का जैसा आचार होता है, उसे समाज में उसी श्रेणी में रखा जाता रहा है. इसी तरह हिन्दू समाज में स्त्री की स्थिति को बहुत तोड़-मरोड़ कर गलत ढंग से पेश किया गया. विचारणीय बात यह है कि, जिस धर्म-समाज में स्त्री को देवी-भगवती यानी ईश्वर के रूप में पूजा गया हो, उसमें स्त्रियों की स्थति इतनी बुरी कैसे हो सकती है, जैसी कि शरारती तत्वों द्वारा बतायी जाती है. संसार में ऐसा कोई अन्य देश नहीं है, जिसमें ईश्वर को स्त्री के रूप में माना गया हो. अक्सर यह भी देखने में आता है कि कोई व्यक्ति किसी ग्रंथ या पुस्तक के एक अंश या किसी श्लोक या चौपाई का एक हिस्सा पकड़कर उसकी अपने अनुसार व्याख्या करने लगता है. 

ऐसा करके वह अपने मत या अपनी सोच को ही प्रसारित करता रहता है. आजकल तो यह काम बहुत सुनियोजित और संगठित तरीके से किया जा रहा है. इसके लिए विदेशों से वित्तीय मदद की बातें भी पढ़ने-सुनने में आती हैं. भारत में जातिवाद को लेकर बहुत सी विपरीत बातें कही जाती हैं. बहुत आश्चर्यजनक बात है कि, भारत की मूल व्यवस्था में जाति का कोई अस्तित्व ही नहीं है. मध्यकाल से जाति व्यवस्था अस्तित्व में आयी. मूल रूप से चार वर्ण हैं, जो व्यक्ति के स्वभाव पर आधारित हैं. लोग वर्ण और जाति को गलती से एक ही समझते हैं. हमारे शास्त्रों के मौलिक पाठों में जाति का कोई उल्लेख कहीं नहीं मिलता.  

किसी ख़ास काम को करने वाले लोग संगठित होकर अपने हितों की रक्षा करने के लिए एक हो गये. यह व्यवस्था पश्चिमी देशों में के “वर्कर्स गिल्ड” जैसी थी. जातियों के संगठनों ने प्रारंभिक समय में अपने सदस्यों के हितों की रक्षा की दिशा में बहुत अच्छा काम किया. धीरे-धीरे यह स्वरूप बिगड़ गया और इसने जातिवाद का रूप ले लिया. कुछ जातियों के लोग अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझने लगे. इस तरह हमारे समाज में जातिवाद की बुराई पनपी. लेकिन इस व्यवस्था के मूल रूप में ऐसी कोई सोच नहीं थी. 

इसी तरह अनेक बातों को जानबूझकर तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है. अनेक ग्रंथों और शास्त्रों में बहुत सी ऎसी बातें जोड़ दी गयी हैं. हमारे मुख्य ग्रंथों की मूल प्रतियाँ तो उपलब्ध हैं नहीं. इसलिए ग्रंथों में क्या साजिशन जोड़ा या घटाया अथवा बदला गया है, इसका कैसे पता लग सकता है? इसका सीधा उपाय यह है कि वर्तमान में उपलब्ध ग्रंथों में जो बातें सनातन धर्म के मूल दर्शन के विरुद्ध हों,उन्हें पहली नज़र में ही झूठ मानकर नकार देना चाहिए.  

शास्त्रों की वर्तमान में जो प्रतियाँ उपलब्ध हैं, उनके मूल स्वरूप को समझने की ज़रूरत है. थोड़ा सा भी चिन्तन करने पर स्पष्ट हो जाएगा कि इसका मूल भाव क्या रहा होगा और इसमें कुछ बातें जोड़ या घटाकर इसे किस तरह विकृत और दूषित किया गया है. सनातनी लोगों में यदि ऎसी जागरूकता नहीं आयी, तो इससे द्वेष रखने वाले लोग लगातार मनमानी कर हमारी आने वाली पीढ़ियों को बरगलाते रहेंगे.  

 

धर्म जगत

SEE MORE...........