 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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जिस प्रकार अन्न, जल और वायु का जीवन की रातिशीलता के साथ घनिष्ठ संबंध है, उसी प्रकार मानवी चेतना के विकास में तीन तत्व महत्वपूर्ण है। एक पितृऋण, दूसरा ऋषिऋण, तीसरा देवऋण। इन तीनों के संयुक्त अनुदान से ही चेतना विकसित एवं परिष्कृत होती है। इनमें से जिसकी जितनी कमी रह जाती है, व्यक्ति उतना ही पिछड़ा और गया-बीता रह जाता है।
पिता की वंश परंपरा लेकर शुक्राणु निस्सृत होते हैं। माता अपने शरीर और मन का महत्त्वपूर्ण भाग शिशु को देती है। परिवार के लोग भी बाल विकास में अपने-अपने ढंग से सहायक होते हैं। पूर्वजों की सुख-सुविधा एवं प्रगति प्रसन्नता के निमित्त जो लोकोपयोगी परंपराओं के साथ जुड़े हुए कार्य किए जाते हैं, वे पितृ ऋण से मुक्ति दिलाते हैं।
शिक्षा और विद्या का प्रसार विस्तार ऋषि ऋण से मुक्ति प्रदान करता है। हर शिक्षित का कर्तव्य है कि वह अपना समय निजी कार्यों में से बचाकर पिछड़ों को समुन्नत बनाने वाली ज्ञानगंगा के साथ संपर्क क्षेत्र के लोगों को जोड़ने का प्रयत्न करे।
अपनी चेष्टाओं को विद्यालय और पुस्तकालय के संयुक्त रूप में विकसित करें और उस संगम का लाभ अधिकाधिक लोगों को देने के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहे।
ऋषि ऋण से, गुरु ऋण से मुक्ति इसी प्रकार हो सकती है। जो सर्वथा अशिक्षित हैं, वे भी विद्या विकास के लिए अपने साधनों को जोड़ते हुए उस उत्कृष्ट के निमित्त जो कुछ कर सकते हैं, उसमें कर्मी न रहने दें। विद्यादान के निमित्त धन दान करने से भी यह प्रयोजन पूरा हो सकता है।
तीसरा ऋण है- देव ऋण। मनुष्य के भीतर दैत्य भी रहता है और देव भी। दैत्य पतन-पराभव के लिए आकर्षित करता है, कुबुद्धि उत्पन्न करता है, कुमार्ग पर चलने के लिए फुसलाता है। देवत्व की प्रकृति इससे सर्वथा उलटी है। वह निरंतर यह प्रेरणा देती है कि मनुष्य आगे बढ़े, ऊँचा उठे।
दुष्प्रवृत्तियों से लड़े और सत्प्रवृत्तियों को बलिष्ठ बनाए, सत्प्रवृत्तियों की दिशा में कदम बढ़ाए। पाप से जूझे और पुण्य को पोषे। यह देवांश जिसके अंदर जितनी अधिक मात्रा में होता है, वह उतना ही व्यक्तित्व का धनी, महामानव एवं देवात्मा बनता जाता है। ऐसे ही व्यक्ति नर- नारायण कहलाते हैं।
पुरुष स्तर से ऊंचे उठकर पुरुषोत्तम वर्ग तक जा पहुँचते हैं। भवसागर से स्वयं पार उतरते हैं और अपने कंधों पर बैठाकर अनेकानेक दुर्बल असमर्थों को पार उतारते हैं।
देवासुर संग्राम मानस लोक में सदा चलता रहा है। पतनोन्मुख बनने में दैत्य तत्त्व कुछ कमी नहीं रहने देते और इसका प्रतिरोध करने के लिए देव वर्ग का प्रयत्न- परामर्श निरंतर चलता रहता है। यही शाश्वत महाभारत है। यह महायुद्ध निरंतर चलता रहता है। दोनों एक दूसरे को गिराने और अपना वर्चस्व जमाने के लिए प्रयत्न करते रहते हैं। निकृष्टता के अंश गिराने में कमी नहीं रहने देते, किंतु उत्कृष्टता का प्रयास यह रहता है कि पतन विजयी न होने पाए। वह देव संस्कृति के अधिष्ठाता मनुष्य की गौरव- गरिमा को बचाए रहने के लिए अपने पक्ष का हर विधि से परिषोषण करे।
यह गंज-ग्राह की लड़ाई है। यही कौरव-पांडवों का युद्ध है। इसी को वृत्रासुर और इंद्र का देवासुर संग्राम कहा जाता है। इनमें से विजयी कौन हो ? यह `संतुलन मनुष्य के हाथ है। वह जिधर भी सहारा लगा देता है, उधर का ही पलड़ा भारी हो जाता है।
मानवी चेतना किसे सहारा दे ? उसकी बुद्धि किसका समर्थन करें ? उसका पुरुषार्थ किसका पक्षधर बने ? यह निर्णय करना मानवी अंतराल का काम है। वह जिस पक्ष में अपने को सम्मिलित कर लेता है, वही भारी पड़ता है और वही विजयी होता है।
देव ऋण चुकाने का एक ही तरीका है कि दैत्य का समर्थन-सहयोग करने से इनकार करें। दुष्प्रवृत्तियों को लोभ-मोह के वशीभूत होकर स्वीकार न करें और कष्ट सहते हुए भी पुण्य-प्रयोजनों में अपनी चेतना और क्रिया को नियोजित रखें।
इतना ही नहीं, दूसरों के प्रसंगों में भी इसी नीति को अपनाए। असुरता का प्रतिरोध करें और पुण्य-प्रयोजनों में अपनी बुद्धि, शक्ति और संपन्नता को होम दें। देव ऋण से मुक्ति पाने के लिए यही रीति-नीति अपनानी पड़ती है।
वातावरण का प्रभाव और अंतःकरण का उभार लोक प्रचलन से प्रभावित होकर अनीति के आकर्षणों की ओर ही खींचते हैं जो इस दबाव के विरुद्ध लोहा लेते हैं और टूट जाने तक झुकते नहीं, समझना चाहिए कि वे देवऋण चुका रहे हैं एवं देवलोक के अधिकारी बन रहे हैं।
 
 
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