 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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यह गलतफहमी है कि धन और संपत्ति ही एकमात्र वास्तविक संसाधन हैं जो हमारे जीवन में खुशियों लाने में सक्षम हैं। पैसा समस्याओं से दूर रखने में एक बड़ी भूमिका निभाता है, फिर भी कई अन्य चीजें हैं जो आपको अच्छा महसूस कराने की क्षमता रखती हैं।
सच्ची खुशी दिल से आती है क्योंकि वहीं से हमारी सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह की भावनाएं आती हैं। खुशियों से भरा जीवन जीने के लिए, आपको अपने मन में सकारात्मक भावनाओं को स्थानापन्न करना होगा।
यदि आप अपने जीवन को कई खुशियों और आनंदमय दिनों में बदलना चाहते हैं, तो आपको नकारात्मक भावनाओं को नियंत्रित करने की आवश्यकता है। जब आप अपने मुंह से शब्द निकाल देते हैं, तो उन्हें कभी वापस नहीं लिया जा सकता है। आपको नकारात्मक शब्दों से दूर रहना होगा।
दीनता रहित भाव से सौ वर्ष तक जीवित रहें|
ऋषियों ने सौ वर्ष तक की आयु की सीमा निश्चित की है। अत: सौ वर्ष तक जीवित रहना ही पूर्ण आयु कहा जा सकता है। 'पश्येम: शरद: शतं' अर्थात हम सौ वर्ष तक देखते रहें तथा 'अदीना:स्याम शरद: शतं' अर्थात दीनता रहित भाव से सौ वर्ष तक जीवित रहें। इस प्रकार के वचन वेदों एवं अन्य वैदिक साहित्य में भी उपलब्ध होते हैं।
पुरुषार्थ से ही मृत्यु को पीछे धकेला जा सकता है। पाप और मृत्यु दोनों से भयभीत रहने का प्रमाण भी मिलता है। जन्म और मृत्यु - इन दो अंतों के बीच में जीवन का अस्तित्व है।
यदि किसी भी एक अंत को समाप्त कर दिया जाये तो मध्य का क्या होगा, वह रहेगा या वह भी शेष बचे हुवे एक अंत में लीन हो जायेगा। एक छोर या अंत के बाद दूसरा छोर या अंत तो अनिवार्य रूप में रहेगा ही फिर जन्म के बाद अमरता की कामना कैसे की गयी, क्योंकि 'तमेव विद्वान् न विभाय मृत्यो:' अर्थात विद्वान मनुष्य मृत्यु से नहीं डरता। पर वैदिक आर्यों ने जीवन के महत्व को समझा और उसे प्यार किया.
यही कारण है कि ऋषियों ने बार-बार प्रार्थना की है कि - देवता हमारी आयु को बढ़ा दें - 'देवा न आयु: प्र तिरन्तु'। इस प्रार्थना का असर हुवा परिणामत: कहा गया - 'मा पुरो जरसो मृथा:' अर्थात मानव ! तू बुढ़ापा आने से पहले मत मर।
संसार में कर्म करते हुवे सौ वर्ष तक जीने की इच्छा ही यजुर्वेद के अनुसार पूर्ण आयु की कामना है। अकारण पड़े रहना देहा शक्ति है , जो सभी दृष्टियों से अहितकर है। इसके बाद कहा गया है कि पुत्र- पौत्रों के साथ खेलते हुवे तथा आनंद मनाते हुवे अपने घर में ही रहो।
पंचम वेद महाभारत में यक्ष के प्रश्न का उत्तर देते हुवे युधिष्ठिर ने अपने घर की महत्ता स्थापित करते हुवे कहा है कि- अपने घर में यदि पांचवें-छठे दिन भी साग-पात खा कर रहना पड़े, परदेश में नहीं हों और ऋणग्रस्त भी नहीं हों तो यही परम सुख है।
वस्तुत: जब तक जी चाहे जीवित रहना मानव के अधिकार की बात नहीं है। परन्तु मनुष्य तनाव रहित रहे, स्वीकारात्मक- पॉजिटिव दृष्टि रखे, आनंद के लिए नहीं अपितु आनंद के साथ सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करें तो वह निश्चित रूप से सौ वर्ष की आयु प्राप्त कर सकता है। इसके लिए वह प्रेम, पारस्परिक सहयोग, मैत्री-भावना, कर्म-शीलता, उदारता-पूर्ण व्यवहार, आशा, विश्वास, आस्था, श्रद्धा आदि का आश्रय ले सकता है।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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