 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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श्री वृन्दावन के दर्शन करके पूरी लौटते समय कुछ दिन के लिये वाराणसी में ठहर गये थे। वहाँ श्री चन्द्रशेखर के घर उन्होंने डेरा डाला, जो ब्राह्मण नहीं थे तथा तपन मिश्र के घर भिक्षा लेने जाते थे।
वाराणसी वेदान्तियों का गढ़ था और वे लोग श्री चैतन्य महाप्रभु के प्रेमोन्माद को कोई महत्त्व नहीं देते थे। एक दिन एक ब्राह्मण भक्त ने श्री चैतन्य महाप्रभु और बहुत से संन्यासियों को आमंत्रित किया। संन्यासियों ने श्री चैतन्य महाप्रभु से कहा- 'आप तो संन्यासी है और वेदों का अध्ययन सन्यासी का मुख्य कर्तव्य है।
वैसा न करके आप हरि का नाम लेकर गाते और नाचते हैं, आप ऐसा क्यों करते श्री चैतन्य महाप्रभु अत्यन्त नम्रतापूर्वक उत्तर दिया- "गुरु ने मुझको बेसमझ देखकर यह आदेश दिया कि 'तुम मूर्ख हो, तुम्हारा वेदान्त में अधिकार नहीं है। तुम सदा 'कृष्ण' मंत्र का जप करो— यह मन्त्र-सार है। 'कृष्ण' नाम से तुम संसार से मुक्त हो जाओगे और तुम श्रीकृष्ण के चरणों की प्राप्ति कर सकोगे।
कलिकाल में नाम के अतिरिक्त और कोई धर्म नहीं है। 'कृष्ण' नाम सब मंत्रों का सार है- यही शास्त्र का रहस्य है। श्री कृष्ण तत्त्व-वस्तु है कृष्ण भक्ति प्रेम रूपा है। नाम संकीर्तन आनन्द स्वरूप है।
केवलम् कलौ नास्त्येव नास्त्येव नास्त्येव गतिरन्यथा॥
"इस आज्ञा के अनुसार मैं तभी से नाम लेता हूँ। नाम लेते-लेते मेरा मन भ्रमित हो गया। मैं धीरज नहीं रख सका और उन्मत्त होकर, जैसे मदमत्त मनुष्य हँसता, रोता, नाचता, गाता है वैसे ही मैं भी करने लगा। फिर धीरज धारण करके मैंने मन में विचार किया कि 'कृष्ण' नाम से मेरा ज्ञान ढक गया है। मैं पागल हो गया हूँ, मेरे मन में धैर्य नहीं रह गया है।
यह सोचकर मैंने गुरुजी के चरणों में यह निवेदन किया कि 'हे प्रभु! बताइये - आपने ऐसा क्या मन्त्र दिया जिसने जप करते-करते ही मुझे पागल बना दिया। वह मुझे कभी हँसाता है, कभी नचाता है और कभी रुलाता है।' मेरी बात सुनकर गुरुजी ने हँसकर कहा- "कृष्ण" नाम महामन्त्र का यही तो स्वभाव है। जो भी उसे जपता है, उसी का श्रीकृष्ण में भाव (प्रेम) हो जाता है। 'कृष्ण के प्रति प्रेम होना' यही तो वह परम पुरुषार्थ है, जिसके -- सामने अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष-चारों पुरुषार्थ तृणके समान हैं।
यह पञ्चम पुरुषार्थ प्रेमानन्दामृतसागर है, मोक्षादि आनन्द इसकी एक बूंद भी नहीं है। 'कृष्ण' नाम का फल है' कृष्णयें प्रेमाभक्ति'— यही शास्त्र कहता है। सौभाग्य से तुम्हारे अंदर इस प्रेमा का उदय हुआ है। प्रेमा का स्वभाव है चित्त-तन में क्षोभ और श्रीकृष्ण चरण की प्राप्ति के लिये लोभ उत्पन्न कर देना।
प्रेम के स्वभाव से ही भक्त हँसता-रोता-गाता है, उन्मत्त होकर नाचता है, इधर-उधर दौड़ता है। स्वेद, कम्प, रोमाञ्च, अश्रु, गद्गदता, विवर्णता, उन्माद, विषाद, धैर्य, गर्व, हर्ष, दैन्य-इन विभिन्न भावों से प्रेमाभक्ति भक्तों को नचाती है और उनको श्रीकृष्ण आनन्द-सुख सागर में डुबा देते हैं। बहुत अच्छा हुआ जो तुम को यह परम पुरुषार्थ प्राप्त हो गया। तुम्हारे इस प्रेम से मैं भी कृतार्थ हो गया। अब तुम नाचो, गाओ, भक्तों के साथ संकीर्तन करो और इसके द्वारा त्रिभुवन में कृष्ण नाम का उपदेश करो।"
"गुरुजी के इन वचनों पर दृढ़ विश्वास करके मैं निरन्तर कृष्ण नाम का संकीर्तन करता हूँ। वह कृष्ण नाम मुझे कभी नचाता है, कभी गान कराता है। मैं अपनी ही इच्छा से गाता- नाचता हूँ। कृष्ण नाम से मैं जिस आनन्द- सिंधु का आस्वादन करता हूँ, उसके सामने मुझे ब्रह्मानन्द एक खद्योत के समान प्रतीत होता है।"
श्री चैतन्य महाप्रभु के मधुर वचन को सुनकर और उनसे तर्क-वितर्क में परास्त होकर संन्यासी लोग अपने मत का त्याग करके भक्तिवाद के अनुयायी बन गये।
बसंत कुमार चट्टोपाध्याय
 
 
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