Published By:धर्म पुराण डेस्क

द्वापर युग कैसा था …

महाराज दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ के लिये श्रृंगी ऋषि को बुलाना पड़ा और यज्ञ के अंत में अग्नि से ही प्रकट होकर हवि दी। उस समय तक देवताओं को यज्ञ में आना कम हो गया था और स्वयं यज्ञेश भगवान कदाचित् ही प्रकट होते थे। 

द्वापर - इस शब्द का अर्थ है संदेह। तमोगुण का प्रवेश हुआ। मनुष्य के मन में संदेह, अविश्वास का बीज आ जाए। अविश्वास ने संकल्प को हीनवीर्य कर दिया। इस युग में मनुष्य में शारीरिक सुख की वासना आ गयी। कष्ट सहिष्णुता एवं त्याग का लोप होने लगा। भोग लक्ष्य हो गया मनुष्य का। 

अतः सर्वस्व दान करने वाले यज्ञ संभव नहीं रह गये। भोगेच्छा से संग्रह की प्रवृत्ति बढ़ी। पदार्थों का अभाव संग्रह प्रवृत्ति से होना ही था; क्योंकि वासना का तो कहीं अंत नहीं। पदार्थों का संचय भोगेच्छा को कभी पर्याप्त प्रतीत नहीं होता। 

जनसंख्या भी बढ़ गयी थी। इन सबका परिणाम यह हुआ कि संग्रह में राग के कारण संदेह उत्पन्न हुआ। उसके भय की आशंका हुई। मनुष्य तब भी धर्मभीरु था। उसका उपार्जन पवित्र था। 

दूसरे के स्वत्व को अन्याय पूर्वक लेने की प्रवृत्ति नहीं थी। अवश्य ही अपने न्यायपूर्ण उपार्जन से जो वह संचय करता था, उसे उपभोग करना चाहता था; किंतु उसका उपार्जन पवित्र था। मनुष्य में शरीर सुख की बहिर्मुख वृत्ति आ गयी थी।

द्वापर में मनुष्य यज्ञीय त्याग के अयोग्य हो गया। उपार्जन का वह उपभोग करना चाहता था। यज्ञ में संदिग्ध मन संकल्प को मूर्त करने में बाधक था और उसमें जो नियमादि के कष्ट थे, वे भी सह सके- इतना सक्षम शरीर नहीं रह गया था। भोगेच्छा जागृत हो गयी थी। फलतः उसे नियंत्रित करना आवश्यक था। 

द्वापर के लिये शास्त्रकारों ने नियम कठोर किए। इस समय तक भी मनुष्य में श्रद्धा थी। फलतः द्वापर में पूजा का विधान हुआ। उपार्जन पवित्र था- न्यायपूर्ण था, हृदय में श्रद्धा थी; अर्चना के लिये यह आवश्यक होता है। 

भगवान की सेवा के लिये भगवान की पूजा के लिये पदार्थों का उपार्जन एवं संचय किया जाए और भगवान को निवेदिता करके उस प्रसाद को ग्रहण किया जाए- इसमें लोक-परलोक दोनों का निर्वाह था। 

मनुष्य में तब तक छल, कपट, दम्भ नहीं था। अतएव भगवान के नाम पर विषय-सेवन एवं दुर्वासनाओं के पोषण की आशंका नहीं थी। विशुद्ध श्रद्धा होने से भाव की पूर्णता हो जाती थी।

वेदों तथा पांचरात्रादि सात्विक तंत्र में वर्णित विधि से मनुष्य परम तत्त्व की प्राप्ति के लिये श्याम वर्ण, पीतांबर धारी शंख-चक्र-गदा-पद्म लिये, श्रीवत्स आदि चिन्हों से युक्त, निखिल-ब्रह्माण्ड-नायक, पार्षद आदि सेवितं भगवान विष्णु की आराधना करते थे। 

वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध - इन चतुर्व्यूहात्मक रूपों में उस समय भगवान की आराधना होती थी। नारायण, ऋषि रूपधारी नर, श्रीहरि, पुरुषोत्तम, परमात्मा, विश्वेश्वर, विश्वरूप, सर्वभूतात्मा–ये भगवान का रूप एवं नाम द्वापर में प्रिय थे।


 

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