 Published By:दिनेश मालवीय
 Published By:दिनेश मालवीय
					 
					
                    
आधुनिक युग में अनेक ऐसे महापुरुष हुए, जिन्होंने मनुष्य की चेतना को ऊपर उठाने की न केवल कल्पना, बल्कि चेष्टा भी की. इसके लिए उन्होंने अनेक विधियों और तरीकों को अपनाया. उनकी यह कामना बहुत शुभ और स्तुत्य है, लेकिन वास्तविकता के धरातल पर यह कभी खरी नहीं उतर सकी. भारत के ऋषियों ने इस विषय में बहुत गहरा चिन्तन कर यही निष्कर्ष निकाला, कि प्रकृति की अन्य चीजों की तरह मनुष्य भी कभी एक जैसा नहीं हो सकता. बहुत-सी चीजें एज जैसी दिखाई देती हैं, लेकिन उनमें आंतरिक भेद होता है.
मनुष्यों के इस वर्गीकरण को ठीक से समझ लेने पर व्यक्ति को व्यावहारिक जीवन में बहुत लाभ होता है. वह लोगों को अच्छी तरह समझकर किसीके धोखे में नहीं आता. वह पात्र व्यक्ति की ही मदद करता है और नकली लोगों से दूरी रखकर अनेक परेशानियों से बचा रहता है. ऊपर से देखने पर मनुष्य भी रंग-रूप में अंतर के बाबजूद बुनियादी बातों में एक जैसा होता है. सबके हाथ-पांव, नाक, आँख, कान और अन्य शारीरिक अंग होते हैं. लेकिन भीतर से हर व्यक्ति अलग होता है. वास्तव में देखा जाए, तो हर व्यक्ति का अपना एक अंतर्जगत होता है. यह आंतरिक जगत बाहरी जगत से अनेक गुणा बड़ा और गूढ़ होता है. सबका स्वभाव, सोचने-समझने की शक्ति, शारीरिक-मानसिक क्षमता, वृत्तियाँ आदि अलग-अलग होती हैं. कहते हैं, कि संसार में आंतरिक रूप से एक जैसे दो लोग भी नहीं मिलते.
सनातन धर्म के शास्त्रों में आंतरिक विशेषताओं के अनुसार मनुष्य को दस रूपों में विभाजित किया गया है. इनमें चार उत्तम कोटि के, दो मध्यम और चार निम्न कोटि के हैं. व्यवहारिक जीवन में हम देखते हैं, कि हमारे पूर्वजों ने मनुष्यों का जो वर्गीकरण किया है, वह कितना सटीक और सही है. हमें अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में कदम-कदम पर इस तरह के लोग देखने को मिलते हैं. थोड़ा सा भी ध्यान से देखें तो यह बड़ा आश्चर्यजनक तथ्य एकदम स्पष्ट हो जाएगा.
उत्तम मनुष्य वह होता है, जो कभी किसीको नुकसान नहीं पहुँचाता. यहाँ तक कि किसीका नुकसान करने का भाव भी मन में नहीं लाता. अपना नुकसान होने पर भी वह दूसरों को फायदा पहुँचाने में ज़रा भी संकोच नहीं करता. हालाकि ऊपर से देखने में उसे जो नुकसान दिखायी देता है, लेकिन पारमार्थिक और आध्यात्मिक रूप से यह उसका परम लाभ होता है. इस गहरी बात को केवल वे लोग ही समझ सकते हैं, जिनकी अध्यात्म के क्षेत्र में कुछ गति है. भौतिकवादी दृष्टिकोण रखने वाले लोग ऐसे व्यक्ति को मूर्ख समझते हैं. लेकिन संत, सज्जन और ज्ञानी ऐसे व्यक्ति का बहुत आदर करते हैं.
उत्तम कोटि में दूसरे स्थान पर ऐसा मनुष्य आता है, जो दूसरों को लाभ पहुँचाने के लिए अपना नुकसान नहीं करता. वह किसीकी मदद उस हद तक की करता है, जहाँ तक उसका अपना नुकसान नहीं हो. वह अपना नुकसान करके दूसरों को फायदा पहुँचाने वालों को नासमझ मानता है. उत्तम कोटि में तीसरे नंबर पर ऐसा मनुष्य आता है, जो अपने लाभ के लिए दूसरों को लाभ पहुँचाता है. उसका लाभ होने पर ही वह दूसरे को लाभ पहुँचाता है. वह किसीका अकारण भला नहीं करता. वह गिव एंड टेक में भरोसा करता है. यदि उसको दूर से भी किसी व्यक्ति से कोई फायदा नज़र आता है, तो वह उसकी मदद कर देगा. इसके बिना तो वह किसीको ज़रा भी फायदा नहीं पहुँचायेगा. आज के समय में ऐसे व्यक्ति ही सबसे अधिक मिलते हैं. इसे व्यावहारिकता कहा जाता है.
इस कोटि में चौथे शतं पर वह मनुष्य आता है, जो अपना लाभ न होता हो तो दूसरे को भी लाभ नहीं पहुँचाता. उसका मानना होता है कि जब मेरा ही कुछ लाभ नहीं हो रहा, तो किसीको क्यों लाभ पहुँचाऊँ. आजकल इस तरह के लोग भी बहुत अधिक हैं. मध्यम कोटि के इंसानों दो श्रेणियाँ कही गयी हैं. पहली श्रेणी का इंसान ऐसा होता है, जो अपना लाभ सोचता है, लेकिन दूसरे का नुकसान होता हो तो , वह अपने लाभ के लिए वह काम नहीं करता.
इस कोटि में दूसरे स्थान वाला व्यक्ति अपना ही लाभ देखता है. वह दूसरे की लाभ-हानि की चिंता नहीं करता. नीच मनुष्यों की चार श्रेणियाँ हैं. पहली श्रेणी का मनुष्य अपना लाभ न होने की स्थिति में दूसरों को नुकसान पहुँचा देता है. नीच श्रेणी के दूसरे स्थान पर उन मनुष्यों को रखा गया है, जो अपने लाभ के लिए दूसरे को जानबूझकर नुकसान पहुँचा देते हैं. तीसरी श्रेणी का मनुष्य अपना नुकसान तो नहीं करता, लेकिन अपने लाभ की परवाह न करके दूसरों को नुकसान पहुँचा देता है. इस कोटि में चौथी श्रेणी का मनुष्य अपना नुकसान करके भी दूसरों को नुकसान पहुँचाता है. इसके दो अच्छे उदाहरण हैं. ओले खेती को नुकसान पहुँचाते हैं, जबकि ऐसा करने के बाद वे खुद भी नष्ट हो जाते हैं. मक्खी घी में गिरकर घी को ख़राब कर देती है, लेकिन वह खुद भी मर जाती है.
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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