Published By:दिनेश मालवीय

“ईसाई हो गया हूँ, पर धर्म थोड़े ही बदला है”..

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक  “The Hindu View of Life” पढ़ते हुए इसमें दिए गये एक प्रसंग को पढ़ते हुए हँस-हँस कर लोटपोट हो गया। इसमें एक बड़ा रोचक किस्सा दिया गया है। एक भोलेभाले गरीब आदमी मिशनरियों के प्रचार और प्रलोभन में आकर ईसाई हो गया। वह दूसरे ईसाइयों की तरह हर इतवार को चर्च जाता था। लेकिन हर शुक्रवार को कालीजी के मंदिर में भी दर्शन करने जाता था। स्थानीय लोगों ने जब यह बात पादरी को बतायी, तो वह बहुत मासूमियत से बोला कि, “ईसाई हो गया हूँ, लेकिन इसका मतलब यह थोड़े ही है कि मैंने धर्म बदल लिया है”। 

ईसाई और इस्लाम दो ऐसे धर्म हैं, जिनमें अपने अनुयाइयों की संख्या बढ़ाने को बहुत पुण्य का काम माना जाता है। ईसाइयों में इसके लिए मिशनरीज काम करती हैं। उस धर्म के दूसरे अनुयाइयों की भी कोशिश होती है कि, दूसरे धर्मों के लोगों को ईसाई बनने की ओर आकर्षित किया जाए। इसके लिए मिशनरीज बाकायदा पैसा खर्च करती हैं। पैसे के अलावा और भी तरकीबें अपनाई जाती हैं। मुझे एक जानकार व्यक्ति ने बताया कि छतीसगढ़ के भोलेभाले आदिवासियों को ईसाई बनाने के लिए एक हथकंडा अपनाया जाता था। मिशनरीज आदिवासी देवताओं की पत्थर की मूर्ति और ईसा मसीह की लकड़ी की मूर्ति बनाते थे। आदिवासियों को इकठ्ठा कर उनके सामने दोनों मूर्तियों को पानी में डाल देते थे। स्वाभाविक रूप से आदिवासियों के देवताओं की पत्थर की मूर्ति पानी में डूब जाती थी और ईसा मसीह की मूर्ति तैरती रहती थी। फिर मिशनरीज उनसे कहते थे कि, देखो तुम्हारे भगवान् में तो शक्ति ही नहीं है। 

पानी में डूब गया। हम जो भगवान् लेकर आये हैं, उसकी शक्ति देखो कि, पानी में तैर रहा है। सीधे सादे आदिवासी इस बात से कनविंस होकर ईसाई बन जाते थे। लेकिन उनके भीतर जो संस्कार थे, वे नहीं बदलते थे। वे ईसाई बनने के बाद भी अपने रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं को यथावत मानते थे। भले ही वे इसे सार्वजनिक रूप से नहीं करते हों, लेकिन छुप-छुप कर करते थे। मुस्लिम भी ऐसा मानते हैं कि, जीवनकाल में हर मुस्लिम को कम से कम एक व्यक्ति को इस्लाम में लाना बहुत सबाब यानी पुण्य का अकाम है। मेरे एक परिचित अम्बेडकरवादी हो गये। दीपावली के दूसरे दिन मैंने उनसे पूछा कि, आपके गाँव में आंबेडकरवादियों की कितनी संख्या है ? उसने कहा कि काफी है। मैंने कहा आप और गाँव वाले दीवाली तो नहीं मनाते होंगे।

 वह बोले कि “हओ, ख़ूब मनाते हैं, लेकिन घर में चुपके से”। मैं बहुत चकित हो गया। मैंने मध्यकाल के इतिहास की एक किताब में पढ़ा कि, बंगाल में एक जगह मुसलमान परिवारों में  “सत्यापीर” की कथा होती है। इसमें बताया गया है कि, मुसलमान होने से पहले वे लोग सत्यनारायण की कथा करते थे। मुस्लिम  हो जाने के बाद तो वे ऐसा नहीं कर सकते, लिहाजा उन्होंने “सत्यापीर” की कथा बना ली, जो  लगभग सत्यनारायण की कथा की तरह ही है।  राजस्थान के टोंक में ऐसे अनेक ऐसे परिवार हैं, जो पहले राजपूत थे। बाद में वे मुसलमान हो गये। बहरहाल, उन्होंने अपने पुराने रीति-रिवाज़, परम्पराओं और आस्थाओं को नहीं छोड़ा है। डॉ। 

राधाकृष्णन का कहना है कि, मनुष्य का चित्त और संस्कार बहुत जल्दी नहीं बदलते। जो भी व्यक्ति किसीके जल्दी बदलने की इच्छा रखता  है, उसे निराशा ही हाथ लगनी है। यह एक तथ्य है कि मुसलमान जब भारत में आये, तो अपने साथ स्त्रियाँ नहीं लेकर आये थे। सूरत में जो मुसलमान सौदागर आकर रहने लगे, उन्होंने स्थानीय हिन्दू परिवारों की लड़कियों से शादी की। उस समय हिन्दुओं ने भी इसे बुरा नहीं माना। वे लोग तो उस संस्कृति और धर्म-दर्शन में संस्कारित थे, जिसमें सदा से माना जाता रहा है कि, सभी धर्म समान और ईश्वर तक पहुँचने के अलग-अलग मार्ग हैं। 

आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में जब यह कहा कि भारत में रहने वाले हिन्दुओं और मुसलमानों का डीएनए एक ही है। वे एक ही पूर्वजों की संताने हैं। इस बात  दारुल इस्लाम मदरसे के प्रिंसिपल अरशद मदनी ने भी स्वीकार किया है। भारत के मुसलमान परिवारों में आज भी ऐसे अनेक रीति-रिवाज प्रचलित हैं, जिनका कुछ पीढ़ियों पहले उनके पूर्वज पालन करते थे। मेरे एक मुस्लिम मित्र ने कहा कि, तीन पीढ़ियों पहले उनके पूर्वज राजपूत थे। 

मशूहर सरोदवादक उस्ताद अमजद अली खान के दो पुत्र हैं, जिनके नाम अमान और अयान हैं। कुछ वर्ष पहले जब ये दोनों भाई भोपाल आये थे, तो उन्होंने कहा कि उनके पूर्वज ब्राह्मण थे और उनका सरनेम शर्मा था। मुस्लिम राजनीति करने वाले असादुद्दीन ओवेसी ख़ुद कहते हैं कि, उनके पूर्वज सारस्वत ब्राह्मण थे, जिन्होंने करीब पाँच पीढ़ी पहले इस्लाम कबूल कर लिया था। ऐसे और भी अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं- कोई इसे सार्वजनिक रूप से बता देता है, तो कोई नहीं बताता। आरएसएस जब “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” की बात करती है, तो बड़ी संख्या में लोगों के पेट में दर्द होना शुरू हो जाता है। इस बात की तह में वो नहीं जाते या जाना नहीं चाहते। इसे स्वीकार करने पर उनकी सियासत की दूकान ही बंद हो जाने का ख़तरा है।

 “सांस्कृतिक राष्ट्रवाद” का अर्थ सिर्फ इतना है कि, जो लोग इस्लाम धर्म को मानने लगे हैं, उनकी सिर्फ पूजा-पद्धति बदली है, संस्कृति नहीं। श्रीराम, श्रीकृष्ण और अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की वे पूजा भले ही  नहीं करें, लेकिन वे उनके भी पूर्वज तो हैं ही। इस बात को मानने में क्या गलत है ? इस तथ्य को ठीक से समझकर ईसाई और मुसलमान बने लोग सभी धर्मों के लोगों के साथ समन्वय करके मिलजुल कर रहें यह उनके और पूरे राष्ट्र के हित में है। इसमें इसमें सावधानी सिर्फ यह बरतनी है कि, वे उन लोगों की चालबाजियों के शिकार नहीं हों, जो उन्हें अपना वोट बैंक बनाकर अपना राजनीतिक उल्लू सीधा करते रहे हैं, कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व आज की सबसे बड़ी ज़रुरत है।

 

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