आधुनिक पाश्चात्य लेखकों ने पुरी धाम स्थ श्री जगन्नाथ देवकी काष्ठ-मूर्ति को बौद्ध-मूर्ति प्रमाणित करने का प्रयास किया है। यह भी युक्ति बतायी जाती है कि जगन्नाथ देवी रथयात्रा (विजय) बौद्ध-मूर्ति के रथ पर परिभ्रमण से ली गयी है। परंतु ये सब मत भ्रान्त हैं। ऋग्वेद में दारुब्रह्मा श्री पुरुषोत्तम मूर्ति का स्पष्ट उल्लेख है
अदो यद्दारु प्लवते सिन्धोः पारे अपूरुषम् । तदार स्व दुर्हणो तेन गच्छ परस्तरम् ॥
(ऋग्वेद १० । १५५ ३) अदः (दूरमें), यत् (जो), अपूरुषम् (जो पुरुष द्वारा निर्मित नहीं है), दारु (काष्ठमय पुरुषोत्तमाख्य देव शरीर), सिन्धोः (समुद्र के), पारे (तट पर), प्लवते (जलके ऊपर है), हे दुर्हण (स्तोता), तत् (वह), आरभस्व (अवलम्बन करो), तेन (उसके द्वारा), गच्छ परस्तरम् (उत्कृष्ट स्थान वैकुण्ठ) को प्राप्त हो।
'हे उपासक! दूर देशमें समुद्र के तट पर जल के ऊपर जो दारुब्रह्मा की मूर्ति है, जो किसी मनुष्य से निर्मित नहीं है, उसकी आराधना करके उनकी कृपा से वैकुण्ठ को प्राप्त हो ।'
उड़ीसा प्रांत में भुवनेश्वर के निकट उदयगिरि की हाथी गुफा में कलिंगराज खारवेल की जो लिपि है, उसमें भी नीम के काष्ठ से निर्मित मूर्ति का उल्लेख मिलता है। खारवेल चन्द्रगुप्त के १५० वर्ष बाद हुए हैं।
सनातन धर्म के समग्र शास्त्र वेदमूलक हैं।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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