 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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वाणी- विष:
सामान्यतया विष एक ऐसा पदार्थ है जो जीवित शरीर में अवशोषित होकर घातक प्रभाव पहुँचाता है। यहाँ तक कि विष से प्रभावित व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।
कोई वस्तु किसी अवस्था में शरीर पर हानिकारक प्रभाव नहीं डालती, बल्कि वह शरीर के लिए लाभदायक और आवश्यक हो सकती है।
जैसे कि सोडियम, पोटेशियम, फास्फोरस, लौह, स्वर्ण आदि खनिजों के अनेक लवण शरीर की रचना और क्रियाओं के लिए अनिवार्य होते हैं, वहीं इनकी मात्रा अधिक हो जाने से ये तत्व शरीर के लिए हानिकारक हो जाते हैं।
अफीम, कुचला, वत्सनाभ आदि विषैले पदार्थ शोधित करके उचित मात्रा में दिये जाते हैं तो स्वास्थ्य और प्राणों की रक्षा करते हैं।
आचार्य चाणक्य ने विष की बड़ी सुन्दर परिभाषा दी है ..
अनम्यासे विषं शास्त्रमजीर्णे विष भोजनम् ।
दरिद्रस्य विषं गोष्ठी वृद्धस्य तरुणी विषम् ॥
अर्थ- अभ्यास न होने पर शास्त्र या कोई भी विद्या, अजीर्ण (अपच) में भोजन, गरीब का मित्रों में बैठकर गप्पें हाँकना और वृद्ध पुरुष के लिए तरुणी स्त्री विष है। इसी प्रकार जल, जो कि जीवन का पर्याय है, दुरुपयोग से वह भी विष हो जाता है|
अजीर्णे भेषजं वारि पचनान्ते बलप्रदम्।
भोजने चामृतं वारि भोजनान्ते विषप्रदम् ॥
अर्थ- अजीर्ण में जल पीना औषधि है, भोजन पच जाने पर जल पीने से बल वृद्धि होती है, भोजन के मध्य में कुछ जल पी लेना अमृत है और भोजन करने के तत्काल बाद वही जल पीना विष के समान प्रभाव वाला हो जाता है।
सामाजिक दृष्टिकोण से जिन चीजों को विष या अमृत कहा गया है, वास्तव में समाज के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं।
यक्ष ने अपने अनेक प्रश्नों के क्रम में प्रश्न किया-
किं च वै विषम् (विष क्या है ?)
युधिष्ठिर ने उत्तर दिया- याचना विषम् (संसार में किसी से कुछ माँगना ही विष है।)
महान समाज शास्त्री चाणक्य ने कहा-
मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान्विषवत्त्यज क्षमार्दवदयां शौचं, सत्यं पीयूषवत्पिब।।
अर्थात यदि आप इस संसार से मुक्ति चाहते हैं, तो सांसारिक विषयों को विष की भाँति त्याग दो और क्षमा, कोमलता, दया, तन-मन की पवित्रता तथा सत्य रूपी अमृत का पान करो।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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