Published By:धर्म पुराण डेस्क

लगन आदमी के अंदर हो तो सौ गुना काम करा लेती है

अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम न चलेगा। 

लगन आदमी के अंदर हो तो सौ गुना काम करा लेती है। इतना काम करा लेती है कि अपने काम को देख कर एक दिन आश्चर्य होगा। अपने दोष दूसरों पर थोपने से कुछ काम न चलेगा। हमारी शारीरिक एवं मानसिक दुर्बलताओं के लिए दूसरे उत्तरदायी नहीं अपितु हम स्वयं ही हैं। 

दूसरे व्यक्तियों, परिस्थितियों एवं प्रारब्ध भोगों का भी प्रभाव होता है। पर तीन चौथाई जीवन तो हमारे आज के दृष्टिकोण एवं कर्म का ही प्रतिफल होता है। अपने को सुधारने का काम हाथ में लेकर हम अपनी शारीरिक और मानसिक परेशानियों को आसानी से हल कर सकते हैं। 

दूसरों को सुखी देखकर हम परमात्मा के न्याय पर उंगली उठाने लगते हैं। पर यह नहीं देखते कि जिस परिश्रम से इन सुखी लोगों ने अपने काम पूरे किए हैं क्या वह हमारे अंदर है? ईश्वर किसी के साथ पक्षपात नहीं करता, उसने वह आत्मशक्ति सबको मुक्त हाथों से प्रदान की है, जिसके आधार पर उन्नति की जा सके।

जब निराशा और असफलता को अपने चारों ओर मंडराते देखो तो समझो कि हमारा चित्त स्थिर नहीं, हम अपने ऊपर विश्वास नहीं करते। तभी हम अपनी वर्तमान अप्रिय अवस्था से छुटकारा पाना चाहते हैं तो अपनी मानसिक दुर्बलता को दूर भगाने का प्रयास करना चाहिए। 

अपने अंदर आत्मविश्वास को जागृत करने का प्रयास करना चाहिए। इस बात का शोक मत करो कि मुझे बार-बार असफल होना पड़ता है। ध्यान मत दो क्योंकि समय अनंत है। बार-बार प्रयत्न करो ओर आगे की ओर कदम बढ़ाओ। निरंतर कर्तव्य करते रहो, आज नहीं तो कल हम सफल होकर रहेंगे। 

सहायता के लिए दूसरों के सामने मत गिड़गिडाओ क्योंकि यथार्थ में किसी में भी इतनी शक्ति नहीं है, जो तुम्हारी सहायता कर सकें। किसी कष्ट के लिए दूसरों पर दोषारोपण मत करो, क्योंकि यथार्थ में कोई भी तुम्हें दुःख नहीं पहुंचा सकता। तुम स्वयं ही अपने मित्र हो और स्वयं ही अपने शत्रु हो। जो कुछ भली-बुरी स्थितियां सामने हैं, वे तुम्हारी ही पैदा की हुयी हैं। अपना दृष्टिकोण बदल दोगे तो दूसरे ही क्षण ये भय के भूत अन्तरिक्ष में तिरोहित हो जायेंगे। नजर बदलते ही नजारा बदल जाता है।

हमें अपने व्यक्तित्व पर श्रद्धा को बनाये रखना चाहिए। किसी मनुष्य के कहने से, किसी आपत्ति के आने से अपने आत्मविश्वास को अस्थिर नहीं करना चाहिए। आत्मश्रद्धा को कायम रखने से ही आगे बढ़ना संभव होगा। संसार में आपका मार्ग प्रशस्त होता जायेगा। 

बुद्धिमानी इसी में है कि जो उपलब्ध है उसका आनंद लिया जाये और संतोष के भाव से अपने मन को संतुलित किया जाये। एक साथ बहुत सारे काम निपटने के चक्कर में मनोयोग से कोई काम पूरा नहीं हो पाता, आधा-अधूरा कार्य छोडकर मन दूसरे कार्यों की ओर दौड़ने लगता है। यहीं से श्रम, समय आदि की बर्बादी प्रारम्भ होती है तथा मन में खीझ उत्पन्न होती है। विचार और कार्य संतुलित कर लेने से श्रम और शक्ति का अपव्यय रुक जाता है और व्यक्ति सफलता के सपनों पर चढ़ता चला जाता है।

दूसरों से यह अपेक्षा करना कि सभी हमारे कहे अनुसार चलेंगे और दूसरों पर भावनात्मक रूप से आश्रित न होना श्रेयस्कर है। अस्त-व्यस्त जीवन जीना, जल्दबाजी करना, रात-दिन व्यस्त रहना, हर पल-क्षण को काम-काज में ठूंसते रहना भी मन क्षेत्र में भारी तनाव पैदा करते हैं। अत: यहाँ यह आवश्यक हो जाता है कि अपनी जीवन-विधि को, दैनिक जीवन को विवेकपूर्ण बनाकर चलें। 

ईमानदारी, संयम-शीलता, सज्जनता, नियमितता, सुव्यवस्था से भरा-पूरा हल्का-फुल्का जीवन जीने से ही मन शक्ति का सदुपयोग होता है और ईश्वर-प्रदत्त क्षमता से समुचित लाभ उठा सकने का संयोग बनता है।

संसार के महापुरुष प्रारम्भ में साधारण श्रेणी, योग्यता, क्षमताओं के व्यक्ति रहे हैं। इतना होने पर भी उन्होंने अपने प्रति दृष्टिकोण को हीन नहीं बनने दिया और निराशा को पास फटकने नहीं दिया। आत्मविश्वास और अविरल अध्यवसाय के बल पर वे पग-पग आगे ही बढ़ते गये। 

प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वे लक्ष्य से विचलित नहीं हुए। नगण्य-से साधन और अल्प योग्यता के होते हुये भी देश, धर्म, समाज और मानवता की सेवा में अपने जीवन की आहुति समर्पित कर समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत कर गये और कोटि-कोटि जनों को दिशा प्रदान कर गये। इस प्रकार लगनशीलता उदाहरण बन जाती है, जो जीवन को लक्ष्य तक पहुंचा देती है। जीवन जीना सरल है पर सरल जीवन जीना बहुत कठिन है।

विद्यालंकार

धर्म जगत

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