 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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परमात्मा तो सबके मन की बातें जानता है क्योंकि वह सर्वव्यापी है|
इस प्रश्न पर विद्वानों ने कुछ इस तरह उत्तर दिए हैं |
* रेडियो तरंगे तो पूरे आसमान में है।
* तो आवाज सुनाई क्यों नहीं देती कान को??
* रेडियो की आवश्यकता क्यों पड़ती है??
* अपने मन बुद्धि आदि कारणों को सूक्ष्म कीजिए तो दूसरों के मन की बात जान पाएंगे|
* ये सब तुच्छ चीजों की इच्छा आत्मज्ञानी नही करता|
जो भौतिकवादी भोगवाद व शारीरिक मोह से वैराग्य लेकर आत्मसाक्षात्कार कर लेगा ,वही सबके मन की बात जान सकता है, उससे पहले नहीं ,हां यह अलग बात है कि फिर उसे यह सब जानने व बताने की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी,जिसके लिए संत तुलसीदास कहते हैं, जानत तुमहिं, तुमहिं हुई जाई।
आत्मा ही परमात्मा है ये सही है।आत्मा तो दूसरे के मन की बात निश्चित ही जानती है लेकिन हम लोगों का आत्मा से कनेक्ट नहीं हो पाता अतः स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर की बात समझ ही नहीं पाता। इसके लिए पहले हमें स्वयं आत्मा को शरीर से पृथक जानना होगा। इसमें ऐसा नहीं होता कि लट्टू एडिसन जलाये और बत्ती हमारी अपने आप जले।
केवल वृत्ति का फकॅ है। ईश्वर की वृत्ति सर्वव्यापी है जबकि जीवात्मा की वृत्ति सिमित है। जीव को ईश्वर होने की कोई जरूरत नहीं है जीवात्मा को केवल अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान लेने की जरूरत है बस।
जीव व्यष्टि शरीर में बैठकर ही दुनिया को देख सकता है समष्टि में बैठकर नहीं। अतः वह जो भी कुछ दुन्वयि वस्तु जानेगा वह सब सीमित ही जानेगा। जिनको आत्मज्ञान हो गया है वे सबके मन की बात जान लेते है। लेकिन जिन्होंने सिर्फ सुन रखा है अनुभव नहीं किया है कि आत्मा ही परमात्मा है उनको सबके मन की बात नही मालूम पड़ेगी। तो बात तो सत्य ही है आत्मा ही परमात्मा है।
आत्मा क्या है यह जाने बिना परमात्मा से नाता जोड़ना बिलकुल भी सही नहीं हैं।
हाँ आत्मा परमात्मा है, लेकिन अभी पर्याय में पूर्ण नहीं है, परमात्मा अपने में रह कर पर को वीतराग भाव से जानते है... मे अभी पर्याय से पूर्ण नहीं हूं, मेरा उपयोग पर को लक्ष्य करके विकार रूप होता है... स्व पर प्रकाशक हूं पर अभी व्यस्त नहीं है.
आत्मा का बाहरी रूप पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के पांच तत्व हैं और तीन गुण सत्व गुण, रजोगुण और तमोगुण, त्वचा, कान, जीभ और नासिका और रजस से मन, बुद्धि सत्व से और अहंकार तामस से। और ईश्वर के लौकिक रूप का दसवाँ अंश अविनाशी आत्मा का प्रकाश है जो अस्तित्व और प्रेम के रूप में सब कुछ व्याप्त है।
इसलिए, हम अपने जीवन में जो कुछ भी करते हैं, प्रकृति के पांच तत्व और तीन गुण साक्षी और आधार हैं उनके साक्षियों का लेकिन समग्र रूप से हमारे कर्मों का लेखा जोखा कर्म फल भोग की रचना है। और संपूर्ण परमात्मा सर्वव्यापी होने के कारण सभी के अंतरतम विचारों को जानता है लेकिन हम उसका अंश होते हुए भी सर्वव्यापी नहीं हैं|
इसलिए हम एक दूसरे के अंतरतम विचारों को नहीं जान सकते। अर्थात दार्शनिक दृष्टि से आत्मा और परमात्मा एक होते हुए भी व्यक्तिगत अहंकार का आवरण हमें परमात्मा से अलग कर देता है। ॐ शांति नर्मदा।
दूध से ही दही और घी निकलते हैं पर दूध से दही और घी निकालने की एक प्रक्रिया है ठीक वैसे ही आत्मा भी परमात्मा का ही अंश है और आत्मा को परमात्मा से मिलने के लिए एक साधना की आवश्यकता होती है|
प्रेम से प्रकट होहिं मैं जाना ,,,,जब सारी दुनिया में केवल राम दिखने लगेगा फिर सब के मन की बात जान सकते हो|
अगर आत्मा ही परमात्मा है तो दूसरे के नहीं मन की नहीं वस्तुतः अपने मन की बातें बिना बताए क्यों नहीं जानती है? परमात्मा तो अपने मन की बातें जानता है तब वह सर्वव्यापी है, सर्वगत है।
समुद्र की एक बूंद समुद्र का तुच्छ सा भाग तो हो सकती है किंतु खुद समुद्र नही हो सकती ।
उत्कृष्ट आत्मा सब के मन की बात जानती है। ऋषि मुनि इस तथ्य की ही श्रेणी में आते हैं।
पहले आत्मा को जानो! फिर परमात्मा को जानो! जब दोनों स्थितियों को प्राप्त हो जाओगे तब भी पूर्णत्व को प्राप्त नहीं होंगे! पर जीवन के सब द्वन्द्वों से मुक्त हो जाओगे!
हो सकता है आप दूसरे के मन की बात जानने में भी महारत हासिल कर लो! लेकिन सिद्धियाँ तो अनेक हैं वे योगियों के पीछे भागती है, योगी उनके पीछे भागे तो उन्नति रुक जाती है!
आत्मा के ऊपर कई तरह के आवरण पड़े हैं, जो काल के घोड़े रूपी शैतान मन ने डाल रखे हैं, इनके कारण आत्मा के नेत्र बंद रहते हैं, परंतु सच्चा सतगुरु मिल जाने पर ये माया रूपी पर्दे हट जाते हैं, और आत्मा परमात्मा की तरह सब कुछ देख सकती है।
समुद्र से एक लोटा जल भर लो, वह जल है तो सागर ही, उसके गुण भी वही है किन्तु सागर नहीं है ऐसे ही आत्मा परमात्मा का अंश है उसमे भगवदीय गुण सब है किंतु परमात्मा नहीं है, आत्मा को परमात्मा में विलीन करने पर वह परमात्मा हो जायेगा, जैसे लोटे के जल को सागर में मिला दिया तो वो भी सागर हो गया|
आत्मा परमात्मा के बीच में केवल भ्रम है उसके कारण कुछ पता नहीं चलता उस भ्रम का नाम है मैं मैं मैं मैं मेरा घर, मेरा शरीर, मेरी गाड़ी जहां पर मैं शब्द अहंकार से जीव अहंकार से ही टिका है यह जैसे हटेगा तैसे आप रूप परमात्मा के अस्तित्व में होंगे|
ये सत्य है कि आत्मा परमात्मा का ही अंश है और आत्मा को एक दूसरे के मन की बात को जानने के लिए सिद्धियां प्राप्त करनी होती है और सिद्धियां भक्ति के बिना नहीं मिलती
जैसे बिंदु भी पानी है और सागर भी पानी ही है। लेकिन बिंदु की व्यापकता और सागर की व्यापकता एक नही, वैसे ही आत्मा बिंदु, परमात्मा सागर।
* आत्मा का अपना अस्तित्व है।
* अपनी अपनी मन बुद्धि है।
* परमात्मा का अपना अस्तित्व है।
* आत्मा एवं परमात्मा।
* मूल रूप में दोनों।
* सत चित आनंद।
* स्वरूप है।
 
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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