Published By:धर्म पुराण डेस्क

यह जगत प्रभु की लीला है तो फिर दुख और शोक विषाद कैसा?

क्या यह जगत खेल है? इस जगत में इतने सुख दुख क्यों हैं? दुख से मुक्ति कैसे मिले?

इस जगत को हम भगवान की क्रीड़ा भूमि और समस्त प्रपंच को उनके खेल का साज-समान मान लें तो न फिर कोई झंझट है, न वाद-विवाद है। भगवान अनेक तरह से खेल रहे हैं। उनकी क्रीड़ा में न कोई सम्भव, न असम्भव। 

आज लोग गर्व करते हैं- हमने इंटरनेट बनाया, एरोप्लेन बनाएं, 5G टेक्नोलॉजी लेकर आए, इंजन बनाया, तार बनाये, हम यह कर देते हैं, वह कर देते हैं। 

क्या तुम पृथ्वी का एक कण बना सकते हो ? जल की एक बूँद बना सकते हो ? विद्युत की एक किरण तैयार कर सकते हो ? वायु का एक श्वास उत्पन्न कर सकते हो ? नहीं, तो सब व्यर्थ है। माया में क्या सम्भव, क्या असम्भव ? सभी सम्भव है, सभी असम्भव है।

वे हरि खेल रहे हैं। आदिशक्ति महामाया के साथ वे स्वयं नाचते हैं। महामाया ताली बजाकर उन्हें नचा रही है।

नाचे नंदलाल नचावे वाकी मैया- वे स्वयं नाचते हैं और चराचर प्रकृति के साथ क्रीड़ा करते हैं। कभी स्वयं बैठ जाते हैं- सबको नचाते हैं। 

उमा दारु जोषित की नाईं। सबहि नचावत रामु गोसाई ॥

संत श्री पूज्य पाद प्रभु दत्त जी ब्रह्मचारी महाराज कहते हैं नाचना-नचाना, गाना - गवाना -इसीका नाम रास है यह रास अनादिकाल से हो रहा है, अनन्तकाल तक होता रहेगा। इसका न आदि है, न अन्त, न मध्य, न अवसान चल रहा है, चलता रहा है, चलता रहेगा। 

हम सब उसी की प्रेरणा से कर्म कर रहे हैं, क्रीड़ा कर रहे हैं। क्रीड़ा सुख के लिये होती है-आनन्द के लिये होती है। हम रोज प्रत्यक्ष देखते हैं- खेल में हमें सभी चीजें प्रसन्न करने के लिये ही होती हैं। 

विदूषक आकर हँसी की बातें करता है, हमें प्रसन्नता होती है, हँसते हैं। फिर एक Actress आकर रोती है, तड़फड़ाती है, मूर्तिमयी करुणा का रूप दिखाकर दर्शकों को रुला देती है। सब की आँखों से आँसू बहने लगते हैं। फिर भी हम आनन्द से उछल पड़ते हैं, वाह वाह ! बड़ा सुन्दर अभिनय किया। कमाल कर दिया। आज तो बड़ा आनन्द आया। कभी किसी का सिर कटता है, हम ताली बजा देते हैं। किसी पर विपत्ति आती है, हम उत्सुक होकर उसका परिणाम देखने लगते हैं। 

सारांश यही है कि नाटक में जो भी हो- सभी में हमें सुख है, सभी में आनंद है। दुःख तभी होता है, जब पात्र अपना अभिनय तत्परता से नहीं करते। इसी तरह यह जगत् तो आनन्द की जगह है। खेलने का स्थान है, रंगस्थली है, क्रीड़ा का क्षेत्र है। इसमें जो दुखी होते हैं, चिंतित होते हैं, व्यग्र बने रहते हैं, उन्होंने अपने को ही कर्ता मान रखा है, 

वे स्वयं इस नाटक के दर्शक न बनकर अपने को सूत्रधार समझे बैठे हैं। अरे। सूत्रधार तो वे ही हरि हैं। वे जो भी कुछ करते हैं, जिससे जो भी कुछ करा रहे हैं, सब वे ही करा रहे हैं। तुम उनकी क्रीड़ा में से अपनापन हटा लो, अपने को सूत्रधार के सिंहासन से हटाकर दर्शकों की श्रेणी में कर लो। तब तुम्हें नाटकका असली सुख मिलेगा। 

सूत्रधार तो नाटक का निर्माता है। उसके लिये न कोई हर्ष की बात है, न विस्मय की । उसी ने तो नाटक का निर्माण किया है। वह उसका आदि, मध्य, अन्त - सब है जानता है। तुम उसकी बराबरी मत करो, नहीं तो दुखी होगे। तुम तुम्हीं हो, वह वही है। तुम खेल देखो, आनन्द करो, सुखी रहो या उसकी इच्छा से तुम भी खेल करने लगो। बस, आनन्द-ही-आनन्द है, सुख ही सुख है। खेल को खेल ही समझो, जहाँ इसमें सत्य की भावना हुई कि तुम दुखी और अशान्त हुए। 

सूत्रधार ही सत्य है, बाकी तो सब उसी का निर्माण किया हुआ खेल है। उसमें न सत्यता है, न असत्यता सत्यता तो है ही नहीं; क्योंकि वह बनता बिगड़ता रहता है। असत्यता भी कहें तो कैसे कहें; क्योंकि सत्य स्वरूप की बनायी सभी चीजें सत्य है, सत्य से असत्य का निर्माण हो नहीं सकता। 

अतः तुम इसकी सत्यता-असत्यता के झमेले में पड़ो ही नहीं। इसे तो सूत्रधार पर छोड़ दो। तुम तो खेल को खेल समझो और सदा ठहाका मारकर हंसते रहो। खूब हँसो, हँसते-हँसते लोट पोट हो जाये। जोर से हँसो, कहकहा मारकर हँसो.


 

धर्म जगत

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