 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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आध्यात्मिक शक्ति-सम्पत्ति के लिये प्राचीन ऋषियों ने अनेक साधन आविष्कृत किए हैं। उनमें से निर्दिष्ट पर्व कालों में निर्दिष्ट देवता का पूजन और आराधना की है। यह पूजा और आराधना व्यष्टि और समष्टि के भेद से दो प्रकार की होती है।
हमारे पूर्वजों का यह विचार नहीं था कि एक व्यक्ति ही पूर्वोक्त आध्यात्मिक शक्ति से संपन्न हो; अपितु वे उस शक्ति का संचार समष्टि में भी चाहते थे बिना शक्ति के चाहे ऋषि हों या देव, कोई भी अपने मनोरथों को पूर्ण करने में समर्थ नहीं होते।
आचार्य शंकर ने कहा है कि 'शिवः शक्त्या युक्तो यदि भवति शक्तः प्रभवितुं' । कार्य की सामान्य सिद्धि के लिये अन्य कारणों के साथ ‘प्रतिबंध संसर्गा भाव' को भी शास्त्रकारों ने एक कारण माना है। यह प्रतिबंधक अदृष्ट रूप है अर्थात् यह मानव के दृष्टिगोचर नहीं होता। जो वस्तु दृष्टिपथ में नहीं आती, कार्य-सिद्धि के न होने से उसका अनुमान होता है।
मानव अन्य सभी कारणों के रहते हुए भी कार्य के सम्पन्न न होने से प्रतिबंधक या विघ्न का अनुमान करता है। वह विघ्न या प्रतिबंधक तब तक नहीं हट सकता, जब तक प्रबल अदृष्ट शक्ति का अवलम्बन नहीं लिया जाय। विघ्न-बाधाओं के दूर करने के लिये ही विघ्नेश्वर की शरण ली जाती है।
अतएव छोटे मोटे-सभी कार्यों के आरम्भ में 'सुमुखश्चैकदन्तश्च' आदि द्वादश नामों का स्मरण करके कार्यारंभ करते हैं। यों तो नामस्मरण का माहात्म्य छिपा नहीं है, फिर भी भागवत आदि ग्रंथों में नाम के स्मरण का विशेष महात्म्य प्रतिपादित है।
द्वादशैतानि नामानि पठेच्छृणुयादपि ॥
यः विद्यारम्भे विवाहे च प्रवेशे निर्गमे तथा ।
संग्रामे संकटे चैव विघ्नस्तस्य न जायते ॥
केवल नाम-स्मरण या संकीर्तन मात्र से संतुष्ट न रहकर हमारे पूर्वजों ने श्री गणेश के एक पूजा क्रम का भी प्रवर्तन किया है। इस क्रम के प्रवर्तन में वैदिक मंत्र, पौराणिक विधि एवं तंत्र के कुछ अंशों का भी अवलम्बन लिया गया है।
इसी से श्रौत, स्मार्त, पौराणिक या तांत्रिक, जो भी कर्म हो, उसके प्रारम्भ में गणेश जी की ही आराधना होती है और इस आराधना में परस्पर कुछ लक्षण भी देखा जाता है।
यह तो अन्य कर्मों के आरम्भ करने की बात है; किंतु जब भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी का पर्व आता है, तब उसके प्रारम्भ में भी विघ्नहरणार्थ विघ्नेश-पूजा की जाती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि एक अंग-पूजन है और एक प्रधान-पूजन श्री गणेश का अंग के रूप में जो पूजन है, वह विघ्न हरण के निमित्त है और प्रधान पूजन सभी मनोरथों की सिद्धि के निमित्त है।
एक ही देवता का कभी अंग और कभी प्रधानता के रूप से पूजित होना अनुचित नहीं है। पारमार्थिक दृष्टि से देवताओं में उच्च-नीच भाव नहीं है, लेकिन व्यावहारिक दृष्टि में यह अपरिहार्य है।
भगवत्पाद श्री शंकराचार्य जी- जैसी महान् आत्मा, उन्होंने आसेतु-हिमाचल भारत में भेदभाव के बिना अद्वैत सिद्धांत की प्रतिष्ठा की, वे ही भगवत्पाद 'षण्मतप्रतिष्ठापनाचार्य' भी कहे जाते हैं।
षण्मत हैं, गाणपत्य-सौर-शैव-वैष्णव-शाक्त और कौमार। इन मतों में कोई किसी मत का भी हो, उसे अन्य मतों का भी आदर करना पड़ता है। इससे अद्वैतभाव की कोई हानि नहीं होती।
देश और प्रांत के भेद से पूजन का भेद उपलब्ध होने पर भी भारत भर में भाद्र शुक्ल चतुर्थी एवं माघ कृष्ण-चतुर्थी के दिन श्री गणेशोत्सव विशेष रूप से प्रचलित है। श्री विद्याक्रम में गणेश-पूजन को ‘महागणपति-सपर्या' कहते हैं।
'महागणपति' शब्द यहाँ एक विशेष अभिप्राय से लिया जाता है। महागणपति मनु में 28 अक्षर होते हैं। संख्या शास्त्र के अनुसार 'महागणपति' शब्द भी 285 संख्या का अवबोधक है।
कई देवता वाचक शब्द इस प्रकार बने हुए हैं कि शब्द से बाधित संख्या से तत्तद् देवता के| मनु के अक्षरों की संख्या मिल जाती है। यह गंभीर विषय है, जो गुरु-परम्परा से ही गम्य है।
आज हम चमत्कारों को देखकर नमस्कार करते हैं; किंतु नमस्कार करने से चमत्कार उत्पन्न होता है, यह बात हम भूल गये हैं। चमत्कार ही आध्यात्मिक शक्ति है।
यह देवताओं के नमस्कार और पूजन से ही सिद्ध होता है। अच्छे फल की प्राप्ति के लिये अच्छे कर्मों का अनुष्ठान न्यायसंगत है। यह कर्मभूमि है। अच्छे कर्म के किये फल मात्रा की कामना उचित नहीं। विशेषतः देवता-प्रसाद के लिये यथोचित कर्म करना पड़ता है। संसार में रहते हुए संसार आवश्यक है।
देश का गौरव अच्छे कर्म और अच्छे आचरण करने वालों पर अवलम्बित है। बड़ी-बड़ी इमारतों और अस्त्र-शस्त्र की अभिवृद्धि से देश का गौरव नहीं मापा जा सकता। सदाचार सम्पत्ति, सत्कर्म अनुष्ठान, सभी में सुहृद् भाव या भातृभाव आदि से ही देश का गौरव है।
गणेश चतुर्थी जैसे महापर्व पर यदि हम सामूहिक रूप से उत्सव मनाएंगे और अपनी भक्ति-श्रद्धांजलि को भगवान को अर्पण करेंगे तो देश का आज का दुर्भिक्ष और उसकी अशान्ति सुनिश्चित रूप से दूर हो जाएगी।
हम सिद्धिविनायक महागणपति से प्रार्थना करते हैं कि वे प्राणिमात्र को सुखी बनाएं और उपस्थित अशांति को दूर करें तथा मंगलमूर्ति भगवान श्री गणेश प्रसन्न होकर सभी का कल्याण करें।
 
 
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