 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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एक संत थे, जिनकी विद्वत्ता की गूंज दूर-दूर तक फैली हुई थी। लोग आश्रम में आकर उनके ज्ञान का लाभ उठाया करते थे। एक बार सम्राट को इन संत के बारे में जानकारी मिली। उन्होंने विचार किया कि संत को राजदरबार में बुलाकर उनके ज्ञान का लाभ सम्पूर्ण दरबारियों सहित उठाना चाहिए। उन्होंने संत को राजमहल आने का निमंत्रण भेजा और निवेदन किया कि उनका आतिथ्य स्वीकार किया जाये।
संत ने सम्राट का आतिथ्य स्वीकार किया। राजा ने उन्हें सत्कार पूर्वक कई दिन ठहराया, सत्संग का लाभ लिया। साथ ही राजमहल के अनेक बहुमूल्य पदार्थ दिखाये। रत्न भण्डार में लाये और रखे हुए मणि-मुक्ता का परिचय कराने लगे। संत मौन रहकर यह सब सुनते रहे।
एक बार संत ने राजा को अपनी कुटिया पर आमंत्रित किया। समयानुसार वे पहुंचे भी। आतिथ्य के उपरांत संत ने आश्रम की छोटी-छोटी वस्तुओं को दिखाना आरंभ कर दिया। सस्ती और सामान्य वस्तुयें देखने में राजा को रुचि नहीं थी तो भी वे शिष्टाचारवश उन्हें उपेक्षापूर्वक जैसे-तैसे देखते रहे। देर तक जिसकी उपयोगिता बताई गई, वह थी- आटा पीसने की हाथ की चक्की।
राजा की अरुचि अब अधिक मुखर होने लगी। वे बोले- वह तो घर-घर में रहती है। कुछ ही मूल्य की होती है। इसमें क्या विशेषता?
संत गंभीर हो गये, बोले- आपके रत्न भी पत्थर के हैं। किसी काम नहीं आते, उलटे रखवाली कराते हैं, जबकि चक्की जीवन भर उपकार करती है और अनेक का पेट भरती है। रत्नराशि से इसका महत्व कहीं अधिक है। राजा का विवेक जगा और वे उपयोगिता-अनुपयोगिता का अंतर समझने लगे।
 
 
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