हमारी भारतीयता की धुरी में हमारे दर्शनों का छिया उत्स है वेद, वेद और भारतीयता समाज का अटूट सम्बन्ध है। वेद का महत्व ही जगत और जन के बीच जीवन गुजारना है। जीवन में सकारात्मक सोच की उपलब्धियों जीवन को रिझाती है। जीवन को जीवन्तता जिन्दादिली और आनन्द से भरपूर जीवन वेद सिखाते हैं। वेद आत्मबर व्यक्ति को हर चुनौती को स्वीकारने के आत्मबल का ज्ञान देते हैं।
भाषासु मुख्या मपुरा, दिव्या गीर्वाणं भारती यह श्लोक वेदों की भारतीय समाज में प्रतिष्ठता को इंगित करता है। "ईश्वरस्य निःश्वसितं वेदाः" वेद को ईश्वर की धड़कन कहते हैं। इसलिये वेद सभी के हैं क्योंकि भगवान एक है। इसीलिये वेदों को सनातन, सर्वव्यापी मान्यता प्राप्त है।
वेद लौकिक और परलौकिक ज्ञान के ग्रन्थ हैं। वेद ऋषि परंपरा के आलोक हैं। इसीलिये सत्य का दृष्टा कहा जाता है। इस दिव्य को श्र करने ऋषिही थे। वेद श्रुति कहलाते हैं। भारतीय आध्यात्मिक ग्रन्थ वेदों से निकले हैं जिन्हें गीता, उपनिषद्, महाभारत, रामायण आदि के नाम से जाना जाता है वेदों के विषय में उनके रचयिताओं का भी यही मत है।
वेद व्यास ने वेदों को संकलित और लिपिबद्ध करने का बहुत कठिन काम किया है। मूल वेद चार ही है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इसमें दृष्य प्रकृति विश्व नियन्ता की अपार अश्य शक्तियों के रहस्यों को उजागर करने के साथ ही, वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय विकास के मुद्दे भी निहित हैं। जीवन जगत के जीने के मूलाधार, पर्यावरण की पवित्रता बनाये रखने की शक्तियाँ भी वेदों की महती विशेषता मानी जाती है।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज और मनुष्य के संबंध अन्योन्याश्रित है। मनुष्य का सारा संघर्ष, समाज में श्रेष्ठ और बनने का है। भारतीय समाज के क्या क्यों और कैसे? प्रश्नों की शिझा का उत्तर वेद है। देव पितृ मनुष्याणाम् वेदश्चक्षुः सनातनः। वेदों को देव, पितरों, मनुष्यों की सनातन दृष्टि कहा है।
तीनों कालों में भारतीय समाज ने इसकी उपयोगिता को स्वीकारा है। वेद मानव जीवन के चारों पुरुषार्थो धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का ब्यौरा देते हैं। वेदों ने भारतीय समाज की सभ्यता और संस्कृति के परिदृश्य के एक स्वरूप की स्थापना की है। भारतीय समाज अपने जीवन के सर्वोच्च उद्देश्य, सर्वोत्तम ढंग से कैसे हासिल कर है। इसकी सुन्दर व्याख्या वेदों में ही मिलती है।
वेद विज्ञान की कला को भारतीय समाज ने अद्वितीय पाया है। वेदों के पठन पाठन से विचार का ज्ञान संसार प्रकाशित होता है। यह अद्भुत सत्य है। भारतीय समाज का यह अनुभव है कि जब वे वेदों के परम सत्य के साथ जीवन जीते हैं तो एक परम संतोष रहता है।
परम सत्य को त्यागते ही व्याकुलता और तमस जीवन में बढ़ने लगता है। ऐसा क्यों होता है? ऋषि परम्परा इस प्रश्न का उत्तर यूँ समझती है कि तुम अकेले अंधेरी रात में जा रहे हो। कुछ समझ ही नहीं रहा है। अचानक बिजली चमकती है, मार्ग दिखने लगता है और यह आसान हो जाती है। बिजली की चमक गायब होने पर फिर पुष्प अंधेरा।
ऐसे ही जिन्दगी की अंधेरी राह में वेद आलोक स्तम्भ है। भारतीय समाज में जन्म घुंटी के साथ ही जन्म से यह पाया जाता है कि, शरीर नाशवान है, आत्मा अमर है। भारतीय समाज में मनुष्य के जन्मते ही बोया गया यह बीज अंकुर बनकर उम्र के साथ पुष्पित, पल्लवित और फलित होता है। भीतर ही भीतर आत्मा की सना खोज होने लगती है। इस खोज का मार्गदर्शन वेद ही करते हैं।
वेद भारतीय समाज के ही नहीं विश्व समाज के लिये कल्याणकारी और उद्धारकर्ता है। भारतीय समाज के दैनिक जीवन के व्यवहार में संस्कारों की स्थिरता, भावनात्मक समानता, समभाव और सहिष्णुता के गुणों की कसौटी भारतीय समाज के हर परिवार को मिलती है। यह फलित वेदों की देन है।
भारतीय समाज की जीवन दृष्टि में अस्य ही वेद ज्ञान की गहरी पैठ है। मानव सहज ही कभी-कभी यह भी सोचता है कि इनकी अक्षुणता कैसे बनी हुई है। इस पक्ष प्रश्न को सुलझाती है भारतीय वेद परम्परा शब्द ब्रह्म ही वेद है। भारतीय समाज में महर्षियों, महात्माओं के प्रादुर्भाव का एक स्वर्णिम इतिहास है।
यह ज्ञान के स्रोत के लिये अपने ही अन्दर जाते थे और सनातन तथा वैश्य वेद ज्ञान के साथ पूर्ण सिद्ध सत्य को लेकर प्रकट होते थे। उनका उद्गम ही वैश्व है। सम्पूर्ण मानव जाति को अपनी उपलब्धि वितरण हेतु वह गंगा की तरह प्रस्तुत रहते थे। उन्होंने ही वेद ज्ञान को सुरक्षित रख पुनरूज्जीवन दिया था।
वेद सोम-सुधा के सुरक्षित रखने के लिये इन्होंने ही सुराही काम किया। इसी गुरु परम्परा ने क्योर्तिपरों का निर्माण भारतीय समाज में किया। उन्होंने पर्वों की तरह परम सत्य की ज्योति को पीढ़ी दर पीढ़ी पहुँचाया ताकि, कालरात्रि में भी यह ज्ञान आलोक बिखेरता रहे।
भारतीय समाज की रीढ़ गृहस्थाश्रम है। इसकी श्रेष्ठता से ही समाज में सुख, शान्ति, समृद्धि का मधुर खुशहाल वातावरण बनता है। सुखी परिवार उत्तम स्वास्थ्य के वेद मंत्र को महापुरुषों ने जो चरितार्थ किया है वे ही प्रेरणा बनकर भारतीय समाज को आज भी जोड़े हैं। यह जोड़ बेजोड़ है। ये देन वेदों की ही है।
विविधता में एकता वाक्यों में भारतीय समाज में मूर्तमान होती है। भारतीय समाज अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्यों की प्रगति में सतत संघर्षरत रहता है। इस यात्रा में कुरीतियों, दुष्प्रभावों, दुष्प्रवृत्तियों से उसका सामना होता है। वेद मंत्र आत्मबल की संजीवनी परोसते हैं। आत्मोन्नति के लिये वेदों ने उत्कृष्ट चरित्र को आधार मानकर उसे पहली आवश्यकता सिद्ध किया है।
जीवन में मनसा, वाचा कर्मणा को जिन्होंने चरितार्थ किया है। भारतीय समाज में आज भी उन्हीं प्रेरक सिद्धांतों को ससम्मान याद किया जाता है। ऋषि परम्परा भी यही कहती है। सत्य कड़वा होता है। असत्य मीठा, जैसे सर्प विष से व्यक्ति को नीम की पत्ती मीठी लगती है वैसे ही हमें भी असत्य का मीठापन सुखद जीवन को नारकीय बना देता है।
यही नहीं दुर्व्यसन, दुष्प्रवृत्तियों जीवन को सत्य से परे ढकेलकर असत्य के मीठेपन का अहसास कराती है जो आरंभ में तो अच्छी लगती है पर बाद में उनका हश्र नारकीय जीवन में हो जाता है और हमारे जीवन में यह लोकोक्ति सार्थक हो जाती है।
“अब पछताये होत का जब चिड़िया चुग गई खेत।”
दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा दिलाने वाले जीवन्त मंत्र वेद भारतीय समाज को अनुपम धरोहर है। ऋग्वेद में कहा है- आलसी मनुष्य अपना पुरुषार्थ गंवा देता है। जिससे उन्हें सफलता नहीं मिलती। उन्हें सभी ओर से घोर निराशा मिलती है।
नियन्ता ने मनुष्य 'को बनाया ही परिश्रम के लिए, पुरुषार्थ के लिए, जिससे वह अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर सके। सफलता के सूत्र लगन, निष्ठा, एकाग्रता ही हैं। वे इस भ्रम को तोड़ते हैं कि, कृपा से ही सब हो जाता है। कर पा अर्थात् कर तो पाएगा।
कर इसलिये नियन्ता की देन है। नियन्ता ने इसलिए कर्म को प्रधान बनाया है, वेद उसी परम सत्य को उद्घाटित करते हैं। इसी कर्म की पूजा ने भारतीय समाज को विश्व के हर क्षेत्र में शीर्ष पर पहुँचाया है।
समाज को अपने आविष्कारों से चमत्कृत करने वाले वैज्ञानिकों की प्रशंसा में जब जनसमूह उनकी खोज की उन्हें बधाई देता है तो अधिकांश वैज्ञानिकों का जवाब यही होता है हमने तो प्रकृति में मौजूद तथ्यों को ही उजागर किया है। हमने भारतीय परम्परा, रीति-रिवाजों, संस्कारों में उनकी खोज के बीज पाए हैं। हम तो केवल यंत्र हैं। प्रकृति की परम सत्ता को स्वीकारने का यह मंत्र वेदों की विश्व उपादेयता को बतलाता है।
इसलिये वेद ज्ञान के विश्वकोश है। “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। जब यह कथ्य जन सामान्य के गले नहीं उतरता तब ऋषि परम्परा यह कहती है- स्वर्ग पुण्य से मिलता है। पुण्य क्षय होने पर उस पर कोई अधिकार नहीं रहता है।
लेकिन माँ और जन्मभूमि पर अधिकार स्वयंसिद्ध है। भारतीय समाज का देश प्रेम इस वेद वाक्य “माता भूमि पुत्रो अहं पृथिव्याः' का घोष करता है। तभी तो वेद संस्कारों की ऐसी पाठशाला हो गयी है। जहाँ हर भारतीय का मन कह उठता है "सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा।"
यही नहीं वरन् हर भारतीय की कामना भी यही रहती है- "अगर जनम हो दोबारा, भारत वतन मिले ।” वेद पर्यावरण को सुखद बनाने के हितोपदेश देने में भी कभी पीछे नहीं रहे। वेदकालीन समाज में न केवल पर्यावरण के सभी पहलुओं पर चौकन्नी दृष्टि थी वरन् उनकी रक्षा और महत्व को भी स्पष्ट किया गया है।
वेदों के अनुसार प्रकृति एवं पुरुष का संबंध एक दूसरे पर आधारित है। उदाहरणार्थ जल मंगलमय, घी के समान पुष्टि जाता है तथा वही मधुरता भरी जल धाराओं का स्रोत भी है। भोजन के पचाने में उपयोगी तीन रस है। प्राण, कांति, पौरुष देने वाला, अमरता की ओर ले जाने वाला मूल तत्व है। यह वेद वाक्य भारतीय समाज में जहाँ की अर्घ्य से आगमन तक तथा वर्तमान युग में जल ही जीवन को बचाने की मुहिम भारतीय समाज के वेद के उसी मंगलमय गान की सुरभित गूंज है। यज्ञ, हवन आदि के द्वारा वायु की शुद्धता वेद का ही प्रतिफल है।
अथर्ववेद में स्वास्थ्य की दृष्टि से कठोर ध्वनि से दूर रहने एवं मधुर ध्वनि का चलन बढ़ाने के प्रयासों पर जोर दिया गया है। ध्वनि प्रदूषण से बचाव का यह संकेत हमें सचेत करता है।
इसके साथ ही अथर्ववेद में शुद्ध खाद्य पदार्थों के उपयोग की ताकीद दी गई है। आज समाज इन प्रदूषणों के प्रति सचेत एवं जागरूक हो गया है। वह चकमक युग से चकाचौंध युग तक आ जाने वाली सभ्यता का अपने मूल तक पहुँचने की ललक का द्योतक है।
वेद कर्मफल की नियति को सनातन सिद्ध करके भारतीय समाज को इस डर से मर्यादित, संस्कारित नैतिक जीवन जियो और जीने दो तथा विश्व बंधुत्व के संसर दिये हैं।
पुनर्जन्म की धारणा भारतीय समाज को एक सुन्दर समाज के निर्माण में दुराचारी की भीड़ को नियंत्रित करने में सहायक है। प्रजातंत्रीय भारतीय समाज की सफलता का आधार वेद ही है।
वेद ज्ञान के रसोई घर है। वर्तमान परिदृश्य में कभी यह लगता है कि, भारतीय समाज अपने केंद्र से तो बाहर नहीं जा रहा है। यह अनुभूति स्वाभाविक है, किन्तु यह भी उतना ही अनुभूत सच है कि, हर बार भारतीय समाज सोना सा खरा अग्नि परीक्षा में होकर ही निकला है। यह स्वभाव और प्रभाव वेद का ही है।
भारतीय समाज का एक जातीय व्यक्तित्व है जो, हमारी जीवन मीमांसा, रहन-सहन, रीति-रिवाज, उठने-बैठने, चाल-ढाल, वेशभूषा, साहित्य-संगीत और कला में अभिव्यक्त होता है। जीवन की पूर्णता, प्रकृति की पूर्णता और जीवन-कौशल के लिये वेद ज्ञान पारस है।
वेद हमारी जिज्ञासा के पीछे रहकर सतत् हमारे हृदय में ज्योति जलते हैं और हमारी अंधकारमयी सत्ता पर सूर्योदय कराते हैं, तभी खेत की मेड़ पर किसान, मजदूर, राहगीर सभी, महापुरुषों के सत्संग से जीवन में वेद के अंशों से हर भारतीय ओतप्रोत रहता है और वेद के उस स्वर को सुनता रहता है। जो हृदय में अमृत का स्रोत है
॥जिन्दगी वेद थी जिल्द बाँधने में गुजर गई।
अशोक वाजपेयी
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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