Published By:दिनेश मालवीय

हिन्दू संस्कृति में जीवन से जुड़ी हर चीज़ का सम्मान सिखाया जाता है -दिनेश मालवीय

हिन्दू संस्कृति में जीवन से जुड़ी हर चीज़ का सम्मान सिखाया जाता है -दिनेश मालवीय

 

हिन्दू संस्कृति की एक सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि परिवार में बचपन से ही जीवन से जुड़ी हर चीज़ का सम्मान करना सिखाया जाता है. अगर आपका पांव पानी के गिलास या अन्य बर्तन से लग जाए, तो आप तत्काल उसे छूकर अपना हाथ माथे से लगा लेते हैं. घर को साफ़ करने वाली झाड़ू तक को बहुत सम्मान दिया जाता है. यदि आपका पैर झाड़ू पर पड़ जाये, तो आप तत्काल क्षमा का भाव रखते हुए उसे विनम्रता से छूकर अपना हाथ अपने माथे पर लगाते हैं. दीपावली के दिन अन्य वस्तुओं के साथ झाड़ू की भी पूजा की जाती है. किसी व्यक्ति को यदि गल्ती से पांव छू जाए, तो उसे छूकर माफी मांगी जाती है. किसी पुस्तक, कलम या अन्य वस्तु पर पैर पड़ जाने पर भी ऐसा ही किया जाता है. इतना ही नहीं, हिन्दू परिवारों में जब नयी बहू आती है, तो उससे कुएं और घूड़े तक की पूजा करवायी जाती है. आजकल कुएं नहीं हैं, तो नल की पूजा करवायी जाती है. घूड़े की जगह डस्टबिन की पूजा की जाती है. इसका बाहरी स्वरूप भले ही बदल गया हो, लेकिन मूल भाव यही है, कि हर उस चीज़ को सम्मान दो, जो हमारे जीवन को सुविधाजनक बनाती है.   

 

 

कोई पूछ सकता है, कि ऐसा क्यों है? इसका सीधा-सा उत्तर है, कि हिन्दुओं ने अपने उपयोग की हर चीज़ के बारे में सिर्फ भोग का भाव नहीं रखा. कुछ संस्कृतियों में कहा गया है, कि यह संसार ईश्वर ने हमारे लिए बनाया है, लिहाजा हमें उसकी हर चीज़ का अधिकार के साथ पूरा उपभोग करना चाहिए. इस बात से हिन्दुओं को इनकार नहीं है, लेकिन बस ज़रा सोच का फ़र्क है. हम इन चीज़ों का अधिकार से भाव से नहीं, बल्कि विनम्रता के साथ उपभोग करते हैं. आधुनिक भारत में वृक्षों के प्रति वैसा भाव नहीं रखा गया, जैसा हमारे पूर्वज रखते थे. पश्चिम की नक़ल करके हमने कथित भौतिक विकास के लिए जंगलों और पेड़ों का आपराधिक विनाश किया. इसके नतीजे दुनिया के  साथ-साथ हम भी भीषण गरमी और अन्य प्राकृतिक प्रकोपों के रूप में भोग रहे हैं. लेकिन सबकुछ ख़त्म नहीं हुआ है. आज भी अनेक ऐसे वृक्ष हैं, जिनकी पूजा की जाती है और उन्हें काटना बहुत बड़ा पाप माना जाता है. वनों और वृक्षों की रक्षा के प्रति हम अधिक सजग हो रहे हैं.  

 

 

अंग्रेज़ और दूसरे लोग जब भारत आये, तो उन्हें इस बात पर बड़ा आश्चर्य हुआ, कि यहाँ तो पेड़-पौधों, नदियों और पहाड़ों तक की पूजा की जाती है. उन्होंने इसे अज्ञान निरूपित किया. वे इसके पीछे छिपे रहस्य को समझ ही नहीं पाये. हालाकि आजकल बहुत से विकसित देश भारत की इस संस्कृति के रहस्य हो समझ रहे हैं. हिन्दू संस्कृति ने हजारों साल पहले कहा, कि सारा संसार एक परिवार है. इसमें सिर्फ मनुष्य ही नहीं सभी प्रकृति को भी सम्मिलित माना गया है. यह स्थापित किया गया, कि हर जीव और जग-चराचर में में एक ही चेतना व्याप्त है. कोई किसी से अलग नहीं है. हिन्दुओं ने ईश्वर से प्रार्थना की, कि हम सदा शुभ ही देखें, शुभ ही बोलें, शुभ ही सोचें, शुभ ही करें. उन्होंने मानव मात्र की नहीं, बल्कि सारे जीवों के कल्याण की कामना की. नारा दिया कि प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो.

 

 

आज की दुनिया के लोग अपने आप को बहुत सभ्य समझते हैं. उनका यहाँ तक दावा है, कि आज की सभ्यता अबतक की सबसे विकसित सभ्यता है. ऐसी बातें वे ही लोग सोचते हैं, जिन्हें इस सृष्टि की पुरातनता और विराटता कि समझ नहीं है. उन्हें पता नहीं, कि आज से कहीं अधिक विकसित अनेक सभ्यताएं फूली-फलीं और फिर काल के गाल में समां गयीं. ज़रा सोच कर देखें कि भारत में ही सहस्त्रों वर्ष पहले जो बातें कही गयीं क्या उनसे यह सिद्ध नहीं होता, कि उस समय की सभ्यता आज की सभ्यता से कहीं अधिक विकसित थी. मसलन, प्राचीन भारत में वनों और वृक्षों को देवता, नदियों को देवी, जल, वायु, पृथ्वी सहित प्रकृति के सभी अवयवों को किसी न किसी रूप में पूज्य माना गया. प्रकृति के हर अवयव के पीछे किसी देवता या देवी की अवधारणा की गयी.  इसके पीछे सोच तो यही थी, कि इन्हें हानि न पहुंचाई जाए. प्रकृति से आवश्यकतानुसार जो आवश्यक है वह बहुत प्रेम से इस प्रकार ग्रहण किया जाए, कि प्राकृतिक संसाधन वह पूरी तरह नष्ट न हों.

 

 

यहाँ तो नाग और अनेक पशु-पक्षियों तक को पूज्य माना गया. इस पर इस तरह विचार करके देखा जाए, कि हमारे पूर्वजों को इकोलॉजिकल बेलेंस का महत्त्व पता था. उन्होंने पूरी सृष्टि को एक इकाई माना था, जिसमें कुछ भी एक-दूसरे से अलग नहीं है. हर चीज का अपनी जगह महत्त्व है और किसी भी चीज के नष्ट होने का इकोलॉजिकल बेलेंस पर बुरा प्रभाव होता है. इसीलिए चीटी तक को भोजन देने को पुण्यदायक माना गया. प्राचीन भारत में सामाजिकता का अर्थ आज की तरह नहीं था. आज तो यह माना जाता है, कि लोग एक-दूसरे से मिलें, पार्टी करें, एकसाथ मनोरंजन करें और आपस में मेलजोल  रखें. यह बात अपनी जगह सही है. लेकिन उस समय सामाजिकता की भावना इससे कहीं अधिक व्यापक थी. समाज में सिर्फ मानव नहीं, बल्कि पशु, पेड़ और प्रकृति कि सभी चीजें शामिल थीं. मोहल्ले में रहने वाले कुत्ते और गाय के लिए भी हर घर में रोटी बनती थी और आज भी बनती है.  

 

 

मोहल्ले में पीपल-बरगद और अन्य पेड़ों को पानी देना हर व्यक्ति अपना कर्तव्य समझता था. हर घर में तुलसी का पौधा होता ही है. इस प्रकार सामाजिकता में प्रकृति की हर वस्तु समाज में शामिल थी. इस संस्कृति से दूर होने के कारण ही प्राकृतिक संतुलन ही समाप्त होने का खतरा है. गरमी बढ़ रही है. बारिश कम हो रही है. पानी के स्रोत सूखते जा रहे हैं. पानी के लिए तीसरे विश्व युद्ध की बातें कही जा रही हैं. रासायनिक खाद के अविवेकपूर्ण उपयोग से मानव का शरीर रोगों का घर बनता जा रहा है. मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरकता समाप्त हो रही है. भारत को आज फिर अपनी मूल संस्कृति की ओर लौटने और बच्चों को उसीके अनुरूप संस्कारित करने की ज़रुरत है. भारत ही क्यों, यदि आज पूरा संसार इन संस्कारों को विकसित कर ले, तो अनेक प्राकृतिक आपदाओं से बचा जा सकता है.

 

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