Published By:धर्म पुराण डेस्क

नारी के अभाव में अनियंत्रित, अकर्मण्य होता है, सृजन नहीं विध्वंस करता है। नारी पुरुष की प्रेरणा है, शक्ति है।

परमशक्ति ने महादेव को युक्ति बताई, कैसे वह पुनः उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। शव कैसे पुनः शिव हो सकता है। जड़ कैसे चेतना को प्राप्त करता है शिव हर्षविभोर हुए, पुरुष आनंदित हुआ, शिवजी ने आनन्दातिरेक में सती के मृत छाया शरीर का आलिंगन किया, उसे अपने सिर पर उठा लिया। 

प्रसन्नतापूर्वक समस्त धरती पर तांडव करने लगे समस्त ब्रह्माण्ड प्रमुदित हुआ परन्तु निरंतर बढ़ते नृत्य- लास्य वेग से चराचर जगत् क्षुब्ध हो उठा। नटराज शिव सम्पूर्ण पृथ्वी पर नृत्य करते घूमते रहे। विघूर्णित नेत्र वाले, सर्वसमर्थ शिव आनन्दोन्मत्त होकर उनके नर्तन से विश्व पर आई विपत्ति को भूल गये जगत्संहारक रुद्र कैसे शांत होंगे?

निरुपाय विष्णु, शंकर से भयभीत, सुदर्शन चक्र से सती के छाया शरीर के टुकड़े करके गिराने लगे। आनन्दमग्न शिव नर्तन करते धरती पर चरण पटकते, सती के शरीर के टुकड़े छिटक-छिटक कर इधर-उधर गिरते सती के शरीर के भिन्न-भिन्न अंग घूर्णन गति से दूर-दूर जा गिरे। शिव का सिर भारविहीन हुआ, उन्होंने धैर्य धारण किया। जिन स्थानों पर सती के अंग गिरे, वहीं पाषाणवत् हो गये। वह स्थान शक्तिपीठ बन गये। शक्तिपीठों पर देवी का पूजन-अर्चन होने लगा।

ब्रह्मा ने शिव को शांत करने के लिये अपने मानस पुत्र नारद को भेजा। नारद ने विनय की शम्भो! शान्तचित्त हो, आप सती को पुनः प्राप्त करेंगे। प्रलय को रोकें, सम्पूर्ण सृष्टि विनष्ट हो रही है। सदाशिव ने नृत्य त्याग दिया। विष्णु को श्राप दिया, त्रेता युग में मनुष्य रूप में पत्नी वियोग में वन-वन भटकते फिरेंगे। शिव शांतचित्त हो गये।

विस्फारित नेत्रों से शिव ने त्रैलोक्य को देखा। कामाख्या कामरूप में सती के छाया शरीर का योनिभाग गिरा था, उसे देख शिव उत्कंठित, रोमांचित, काम से व्याकुल हो उठे। शिव के कामभाव को देख योनिभाग पृथ्वी तल को भेदता पाताल लोक को चल पड़ा। 

शिव ने अपने अंश से पर्वत रूप धारण कर सती की योनि को धारण कर लिया। कामरूप शक्तिपीठ में सदाशिव पाषाण लिंग रूप में स्वयं उपस्थित होकर योनि से सम्बद्ध हो गये। लिंग आधेय, योनि आधार; लिंग पुरुष, योनि प्रकृति; लिंग नर, योनि नारी। 

शिवलिंग के साथ योनि पूजन का विधान बना। अकेले शिवलिंग की पूजा नहीं होती। शान्तचित्त शिव योगारूढ़ हो गये। कामरूप शक्तिपीठ पर परमेश्वरी जगदंबा का ध्यान कर तपस्यालीन हुए।

जगदम्बिका महाशक्ति प्रसन्न हुईं। त्रैलोक्य मोहिनी रूप में शिव को दर्शन दिया। कहा- महेश्वर मैं शीघ्र हिमालय की पुत्री रूप में अवतार लूँगी। मेरे दो रूप प्रत्यक्ष होगे। सती के शरीर को तुमने सिर पर उठाकर हर्षपूर्वक नर्तन किया था अतः जलमयी गंगा के रूप में तुम्हारे सिर की जटाओं में निवास करूँगी तथा पार्वती रूप में तुम्हारे साथ पत्नीभाव से रहूँगी।

सती ने दो रूप धारण कर मेना के गर्भ से हिमवान् के घर पुत्रीरूप में जन्म लिया। पहले यह अपने अंश से धवल कान्तियुक्त गंगा के रूप में प्रकट हुई। भगवान शंकर के सिर पर स्थान पाने के लिये उन्होंने जलरूप धारण किया। उन्हें सभी देवताओं के साथ ब्रह्मा जी स्वर्ग ले गये। 

ब्रह्मा जी ने अपने कमण्डलु में स्थित कर पराप्रकृति के अंश से उत्पन्न, तीनों लोकों को पवित्र करने वाली सुन्दर स्वरूप वाली शिवप्रिया गंगा की पुत्रीवत् देखभाल की। इसलिए गंगा को ब्रह्मा की पुत्री भी कहा जाता है। ब्रह्मा जी ने ससम्मान शिव जी को आमंत्रित कर, पवित्र गंगा का शिव जी से विवाह कर दिया और शिव जी गंगा को लेकर प्रसन्नचित्त अपने प्रमथगणों के साथ कैलाश पर्वत पर निवास करने लगे।

स्वामी विजयानंद


 

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