स्वयं के शरीर के साथ किंचिन्मात्र भी सम्बन्ध न कभी था, न है, न होगा और न होना सम्भव ही है। परन्तु भगवान ने साधकों को समझाने की दृष्टि से स्वयं का 'शरीरी' अथवा 'देही' नाम से कहा है।
'शरीरी' कहने का तात्पर्य यही बताना है कि तुम शरीर नहीं हो। स्वयं परमात्मा का अंश है- 'ममैवांशो जीवलोके' (गीता 15।7) और शरीर प्रकृति का अंश है- 'मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि' (गीता 15।7)। शरीर प्रतिक्षण नष्ट होने वाला और असत् है। ऐसे असत् शरीर को लेकर स्वयं शरीरी (शरीर वाला) कैसे हो सकता है ? अतः साधक स्वयं शरीर भी नहीं है और शरीरी भी नहीं है॥
आत्मा, शरीर, और देही: गीता का दर्शन
भगवद गीता एक प्राचीन भारतीय ग्रंथ है जो आत्मा, शरीर, और देही के बीच के रिश्ते को विस्तार से वर्णित करती है। यह ग्रंथ आध्यात्मिक ज्ञान और मोक्ष के मार्ग के संदर्भ में महत्वपूर्ण है।
आत्मा का स्वरूप:
गीता में आत्मा को अमर और अविनाशी बताया गया है। यह जीवात्मा का सच्चा स्वरूप है, जो शरीर से अलग है और अनन्तकाल तक बना रहता है। आत्मा अचल और अच्युत होती है और यह सब प्राणियों के अंतरात्मा में निवास करती है।
शरीर और देही:
गीता में शरीर को एक क्षणिक और अनित्य धारण के रूप में वर्णित किया गया है। शरीर का नाम किन्हीं मात्र भौतिक रूप है, जो समय के साथ बिगड़ता और नष्ट होता है। देही, अर्थात् आत्मा, शरीर के अंदर निवास करता है, लेकिन यह शरीर के पारम्य और अविनाशी स्वरूप से अलग होता है।
देह का आधार:
गीता में कहा गया है कि शरीर सदैव प्रकृति में स्थित रहता है और व्यक्ति के कर्मों का एक आधार होता है। यह कर्मों की द्वार का होता है, जो आत्मा के मुक्ति के लिए एक मार्ग के रूप में कार्य करता है।
आत्मा का वास:
गीता में यह भी बताया गया है कि आत्मा अनंतकाल तक वितरित नहीं होती और यह सदैव देही के साथ रहता है, चाहे वह जीवित हो या शरीर का नाश हो जाए।
इसके परम्परागत अर्थ से, गीता में आत्मा, शरीर, और देही के बीच के संबंध को स्पष्ट रूप से बताया गया है। यह ग्रंथ आत्मा के महत्व को और समझाने में मदद करता है और यह बताता है कि आत्मा हमारे अंदर है और वह शरीर से अलग होती है। इसके माध्यम से, गीता हमें आत्मा के महत्व को समझने और मानव जीवन को आध्यात्मिक मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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