 Published By:दिनेश मालवीय
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महाभारत में दासीपुत्र राजपुत्रों से अधिक साहसी और सत्यनिष्ठा थे -दिनेश मालवीय
कहते हैं कि संसार में तीन बातें बहुत दुर्लभ होती हैं. पहली, निर्धनता में उदारता, दूसरी, एकांत में वैराग्य और तीसरी, दबंग के सामने निर्भीक होकर सत्य बोलना. पहली दो बातों पर कभी और चर्चा होगी, लेकिन तीसरी बात पर हम यहाँ महाभारत के प्रसंग में चर्चा करते हैं.
सत्य बोलना सचमुच बहुत साहस का काम है, खासकर ऐसी स्थिति में जब सच बोलने से आपको बहुत नुकसान हो सकता है, और यहाँ तक कि आपकी जान को भी खतरा हो जाए. किसी ऐसे व्यक्ति के सामने सच बोलना और सच के साथ खड़े होना बहुत कठिन होता है, जो आपसे अधिक बलशाली, क्रूर, अन्यायी और अहंकार से ग्रसित हो.
महाभारत में हम देखते हैं कि अपने प्राणों को संकट में डालकर भी सत्य बोलने का काम तीन व्यक्तियों ने किया. सबसे दिलचस्प बात यह है कि ये तीनों ही दासी पुत्र थे. ये तीन व्यक्ति थे- महामंत्री विदुर, विकर्ण और युयुत्सु. विदुर धृतराष्ट्र के सौतेले भाई थे और विकर्ण तथा युयुत्सु दुर्योधन के सौतेले भाई. इन तीनों में एक बात समान थी कि ये तीनों दासी पुत्र थे. लेकिन दासीपुत्र होने के बावजूद उनकी परवरिश राज पुत्रों की तरह ही हुयी. उन्हें राजकुमारों को मिलने वाले सभी सुख-भोग और विशेषाधिकार प्राप्त थे.
विदुर बहुत बड़े धर्मात्मा, ज्ञानी और नीतिज्ञ थे. उनके और धृतराष्ट्र के बीच पर संवाद ‘विदुर नीति’ पुस्तक के रूप में प्रकाशित है. यह नीति और सत्य के विषय में अद्भुत ग्रंथ है. विदुर का आचरण इतना पवित्र और सादगी भरा था कि उन्हें महात्मा विदुर कहा जाता था. वह हस्तिनापुर के महामंत्री होते हुए भी बहुत सहज और सरल व्यक्ति थे. वह और उनकी पत्नी भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे.
श्रीकृष्ण भी उनके प्रति बहुत स्नेह रखते थे. यह प्रसंग बहुत प्रसिद्ध है कि श्री कृष्ण जब हस्तिनापुर गए थे तो दुर्योधन ने उनके लिए राजभोग तैयार करवाया था, लेकिन श्रीकृष्ण ने विदुर के घर सादा भोजन किया. विदुर निष्पक्ष और धर्मशील होने के कारण बहुत निर्भीक भी थे. सत्य बोलते हुए उन्हें ज़रा भी भय नहीं लगता था. धृतराष्ट्र को वह समय-समय पर ऐसी धर्मयुक्त सलाह देते थे, जो उसे बहुत कड़वी लगती थी. लेकिन विदुर की निष्पक्षता और स्वार्थहीनता पर धृतराष्ट्र जैसे मोह में डूबे राजा को भी इतना विश्वास था कि वह उनकी बात का बुरा नहीं मानता था. वह उनकी बात से मन ही मन सहमत होते हुए भी अपने पुत्र मोह के कारण हमेशा दुर्योधन के पाप कर्मों की अनदेखी करता रहा.
हस्तिनापुर की राजसभा में जब पाण्डव शकुनी की धूर्तता और बेईमानी के चलते जूए में अपना सब कुछ हार गये, तब विदुर ने धृतराष्ट्र से खेल ख़त्म करने का आदेश देने को कहा, लेकिन धृतराष्ट्र ने उनकी अनसुनी कर दी. इसके बाद जब दुर्योधन के आदेश पर दुशासन द्वारा द्रौपदी को भरी सभा में निर्वस्त्र करने की कोशिश की गयी, तो विदुर ने बहुत कठोर शब्दों में इसकी निंदा की और बार-बार इस कुकृत्य को रोकने के लिए राजा से आग्रह किया. लेकिन उनकी बात नहीं सुनी गयी.
विदुर का साहस और सत्यनिष्ठा देखिये कि, जिस समय भीष्म पितामह, द्रोणाचार्य, कुलगुरु कृपाचार्य आदि उस युग के महापुरुष कुलवधू का ऐसा अपमान मौन दर्शक बनकर देख रहे थे, उस समय विदुर ने सत्य बोलने का साहस किया. हालांकि इसके लिए दुर्योधन ने उन्हें बहुत अपमानित भी किया. इसके बाद भी विदुर बार-बार धृतराष्ट्र को धर्म और नीति सम्मत सलाह देते रहे. उन्हें महामंत्री पद या अपने प्राण खोने का बिल्कुल भय नहीं था.
इसी राजसभा में एक और दासीपुत्र ने खुलकर बहुत ज़ोरदार तरीके से कुलबधू के अपमान का विरोध किया. उसका नाम था विकर्ण. वह एक दासी से उत्पन्न धृतराष्ट्र की संतान, और इसी नाते दुर्योधन का सौतेला भाई था. वह बहुत वीर और साहसी था. ऐसा विरोध करते समय उसके मन में राजसी सुख और विशेषाधिकार खोने का बिल्कुल भय नहीं था. उसे दुर्योधन ने बहुत मना किया लेकिन उसने अपने विरोध के स्वर को बिल्कुल धीमा नहीं किया.
जब अपनी बात का कोई असर देखने को नहीं मिला तो वह बहुत क्रोध से भरकर राजसभा को छोड़कर चला गया. महाभारत बहुत विचित्र घटनाओं से भरा ग्रंथ है. यह भी इन विचित्र बातों में शामिल है कि जिस विकर्ण ने राजसभा में द्रोपदी के अपमान का विरोध किया, उसने कौरवों के पक्ष में युद्ध किया. युद्ध में जो भी शत्रुपक्ष से लड़ता है, वह शत्रु ही होता है. उसने पांडवों के बहुत से योद्धाओं को मारा. अंतत: महाबली भीमसेन से उसका सामना हुआ और न चाहते हुए भी भीम को उसका वध करना पड़ा. भीम को इस बात का खेद भी हुआ, लेकिन युद्ध के अपने नियम होते हैं.
तीसरा और बहुत साहसी और सत्य के साथ खड़े होने का साहस करने वाला भी एक दासीपुत्र ही था. उसका नाम था युयुत्सु. वह सौवाली नाम की दासी का पुत्र था. जब युद्ध से पहले युधिष्ठिर ने कौरव सेना के सामने खड़े होकर आह्वान किया कि मेरा पक्ष धर्म का है. जो भी इस युद्ध में धर्म का साथ देना चाहे, वह कौरव सेना को छोड़कर पाण्डव सेना में शामिल हो सकता है.
कौरव सेना में युयुत्सु एक मात्र ऐसा योद्धा था, जो अपने सैन्य टुकड़ी को लेकर पांडवों के पक्ष में आ गया. और भी लोग ऐसा कर सकते थे, लेकिन किसी ने ऐसा नहीं किया. इस महा विनाशकारी युद्ध में जो 18 योद्धा जीवित बचे थे, उनमें युयुत्सु भी शामिल था. उसी ने अपने कौरव भाइयों का अंतिम संस्कार किया. युद्ध के बाद जब युधिष्ठिर हस्तिनापुर के सम्राट बने, तो युयुत्सु को सम्मानजनक स्थान मिला.
पाण्डव जब राज्य का परित्याग कर स्वर्गारोहण के लिए गए, तब उन्होंने युयुत्सु को राज्य का संरक्षक घोषित किया. इस तरह हम देखते हैं कि सत्यनिष्ठा, वीरता और सत्य के साथ खड़े होने का साहस किसी में भी हो सकता है. उस युग के श्रेष्टतम माने जाने वाले राजपुरुष जो न कर सके, वह इन तीन दासी पुत्रों ने कर दिखाया.
महाभारत के बड़े-बड़े योधाओं और महापुरुषों का स्थान अपनी जगह है, लेकिन इन तीन दासी पुत्रों का सम्मान और महत्त्व किस भी तरह कम नहीं है.
 
 
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