 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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सुदूर पूर्व के द्वीपों में रहने वालों के आचार-विचार, भाषा तथा साहित्य और धर्म आदि में जो भारतीयता मिलती है, वह स्पष्ट प्रमाणित करती है कि इन देशों में पूर्वकाल में भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार हुआ था।
विष्णु, ब्रह्मा, गणेश तथा शिव आदि की प्रतिमाओं से भी इस कथन की पुष्टि होती है। इन सुदूर पूर्व के द्वीपों में चंपा अथवा अनाम का वर्णन भी विशेष उल्लेखनीय है।
ऐतिहासिक खोज के अनुसार यह पता चलता है कि श्रीराम चंपा में प्रथम हिंदू शासक हुआ है। उसके उपरान्त 336 ई० से लेकर 529 ई० तक पाँच और शासक हुए। उनके नाम फनवेन, भद्रवर्मन्, गंगराज, देववर्मन तथा विजयवर्मन हैं। विजयवर्मन के उपरान्त रुद्रवर्मन तथा शम्भुवर्मन चम्पा के शासक हुए। उसके उपरान्त कन्दर्प धर्म-शान्तिप्रिय शासक हुआ। अंत में रुद्रवर्मन द्वितीय के मरने पर (757 ई० में) चंपा का राज्य दूसरे वंश के अधिकार में चला गया।
नवीन वंश के शासक सत्यवर्मन ने नष्ट मंदिरों को फिर से बनवाया। इसके उपरान्त और भी राजा हुए। वे सब अधिकतर आसपास वालों से युद्ध करते रहे। सन् 860 में अन्तिम राजा विक्रान्तवर्मन की मृत्यु के उपरान्त इस वंश का शासन भी समाप्त हो गया। इसके उपरांत 'भृगुवंश' के लोग चम्पा के शासक हुए। इनमें इन्द्रवर्मन् प्रतापी राजा हुआ।
सन् 972 ई० में इन्द्रवर्मन् की मृत्यु के उपरान्त जय परमेश्वरवर्मन देव ईश्वर मूर्ति नामक राजा ने सन् 980 ई० में एक नवीन वंश की स्थापना की। इस वंश के रुद्रवर्मन् चतुर्थ ने सन् 1069 ई० तक राज्य किया।
सन् 1081 ई० में चंपा की दशा डावाँडोल I सारे राज्य में विपत्ति के बादल छा गये। उसी समय श्री राजेंद्र राजा की मृत्यु हुई और सन् 1139 ई० में इन्द्रवर्मन राजा हुआ। वह बड़ा धार्मिक तथा उत्साही राजा था। उसने कई स्थानों में शिवलिङ्गों की स्थापना करवाई।
इसके उपरांत चम्पा राज्य का भविष्य अंधकार में चला गया। आक्रमणकारियों ने चम्पा के शासकों को पराजित करके अपने राज्यों में मिला लिया। 1170 ई० में फिर जागृति हुई और इन्द्रवर्मन् ने कम्बुज राज्य के शासक को पराजित कर पुनः चम्पा का स्वतंत्र राज्य स्थापित किया।
इस प्रकार सदैव चम्पा पर आक्रमण होते रहे और उसका भाग्य शासकों की शक्ति के अनुसार बनता बिगड़ता रहा। जयपरमेश्वरदेव (1222), इन्द्रवर्मन् दशम (1257) तथा महेन्द्रवर्मन (1311) शक्तिशाली तथा प्रतापी राजा हुए। इन राजाओं ने अपने समय में आक्रमरियों का सामना करके राज्य की रक्षा की। इसके साथ ही राष्ट्र की जर्जर काया को भी नवजीवन प्रदान कर सशक्त बनाया। पर कभी भी चम्पा का राज्य युद्ध की विभीषिकाओं से मुक्त न हो सका।
सारा प्राचीन इतिहास रक्तरंजित कहानियों से भरा है। सन् 1505-43 में अन्तिम राजा की मृत्यु के उपरान्त चम्पा की स्वतंत्रता सदा के लिये अतीत के गर्भ में विलीन हो गयी। इस प्रकार हम देखते हैं कि चम्पा में भारतवासियों ने लगभग 1500 वर्षों तक शासन किया। उसके उपरान्त उनका चिह्न भी नहीं मिलता। उनका सारा राज्य - वैभव गुलाब के फूल की भांति खिलकर विस्मृति के उस पार छिप गया। पर हिंदू-संस्कृति और सभ्यता वहाँ अब तक जीती-जागती दिखायी पड़ती है।
चम्पा में भारत की सबसे विशेष वस्तु है भारतवर्ष का धर्म। अन्य द्वीपों की भांति यहां भी भारतीय धर्म का प्रचार हुआ। शैव-धर्म की प्रधानता अब तक मिलती है। जो शिलालेख मिलते हैं, उनमें शिव, विष्णु, ब्रह्मा तथा बुद्ध का वर्णन मिलता है। पर उनमें शिव का अधिक वर्णन है।
मंदिर तथा शिलालेखों में महेश्वर, महादेव, पशुपति आदि अनेक नाम मिले हैं। शिवलिङ्गों के नाम भी देवलिङ्गेश्वर, धर्मलिङ्गेश्वर आदि मिले हैं।
शिव के अतिरिक्त 'शक्ति' की भी उपासना होती। थी। शक्ति के उमा, गौरी आदि नाम थे। शिव तथा शक्ति के अतिरिक्त गणेश की भी पूजा होती थी। यहाँ वैष्णव धर्म और बौद्ध धर्म का भी प्रचार हुआ था। शिव की भांति विष्णु की भी पूजा होती थी।
शिलालेखों में भगवान विष्णु के कई नाम मिलते हैं। भारत वर्ष की भांति वहां भी राम, कृष्ण की लीलाओं का प्रचार था। शिलालेखों में लीलाओं का वर्णन मिलता है। गरुड़ तथा वासुकि का भी वर्णन मिलता है। कई प्रतापी राजा तो अपने को विष्णु का अवतार मानते थे।
विष्णु के साथ ही लक्ष्मी की भी पूजा होती थी। स्त्रियां लक्ष्मी पूजा को अधिक महत्व देती थीं। लक्ष्मी की उत्पत्ति के विषय में चंपा निवासियों की धारणा भारतीय धारणा से कुछ भिन्न थी।
इसी प्रकार ब्रह्मा का भी वर्णन मिलता है। शिलालेखों पर उनकी मूर्तियां तथा कई एक नाम मिले हैं। चार मुख वाली मूर्तियां भी मिली हैं। इन सब मूर्तियों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि चम्पा की मूर्तिकला भारतीय मूर्तिकला की भाँति ही थी। इन त्रिदेवों के अतिरिक्त और भी बहुत-से देवी-देवताओं की पूजा होती थी।
इनमें सूर्य, चन्द्र, वरुण, अग्नि, कुबेर तथा यमराज आदि देवता प्रमुख थे। नागों और राक्षसों की भी पूजा होती थी। इन सब की मूर्तियां बनती थीं और उन मूर्तियों की विधिपूर्वक पूजा होती थी। कई स्थानों पर बुद्ध की मूर्तियाँ मिलती हैं और उनसे विदित होता है कि उन मूर्तियों की उपासना की जाती थी। राजा लोग बौद्ध मठ और मूर्तियाँ बनवाते थे। बुद्ध की प्रतिमाएँ भी बहुत सी मिलती है।
भारतीय धर्म के अतिरिक्त शासन प्रबन्ध तथा कला कौशल का भी प्रभाव चम्पा पर पड़ा। समाज भी अछूता नहीं बचा। धर्म, समाज, राजनीति तथा कला-कौशल सभी पर भारतीयता की गहरी छाप लगी थी। चम्पा निवासियों के जीवन का कोई कोना भारतवर्ष के व्यापक प्रभाव से बच न सका।
भारतीय भवन निर्माण कला तथा शिल्प कला पर भारतीयता का प्रभाव प्रत्यक्ष मिलता है। वहाँ के मंदिर तथा मूर्तियां भारतीय ढंग से बनी थीं उनको बनावट दक्षिण और उत्तर के मन्दिरों से मिलती-जुलती है। बुद्ध भगवान की प्रतिमाओं पर गान्धार कला का प्रभाव है। शंकर, विष्णु आदि की मूर्तियों पर बंगाल तथा दक्षिण भारत का प्रभाव था। मंदिरों की छतें उत्तरी भारत के मन्दिर की भाँति थीं। दक्षिण भारतीय भवन निर्माण कला की प्रधानता चम्पा में मिलती है।
चम्पा की शासन व्यवस्था भी भारतीय ढंग की-सी थी। राजा साम्राज्य का सर्वेसर्वा होता था। प्रजा राजा को ईश्वर का अवतार मानती थी। सेना में हाथी अधिक थे। राजा लोग राजनीति का ज्ञाता तथा धर्म धुरीण होते थे। अधिकतर राजा लोग मनु की आज्ञा के अनुसार कार्य करते थे।
चम्पा की समाज व्यवस्था भी भारतीय ढंग की थी। भारतवर्ष की भाँति वहाँ भी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे वहाँ भी ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। उनका सर्वत्र विशेष आदर था ब्रह्महत्या महापाप समझा जाता था। धर्म-कर्म के नेता ब्राह्मण ही थे। विवाह का ढंग भी बहुत कुछ भारतीय था।
वंश और गोत्र का ध्यान रखा जाता था विवाह एक धार्मिक बन्धन माना जाता था। सती प्रथा का भी चलन था। वहाँ की भाषा भी भारतीय संस्कृति थी। कहीं-कहीं प्राचीन चम्पा की भाषा का प्रयोग होता था, पर प्रधानता संस्कृत को ही प्राप्त थी। राजा लोग शास्त्र पुराण तथा वेदों के ज्ञाता होते थे। व्याकरण ज्योतिष के भी अच्छे विद्वान वहाँ थे।
रामायण, महाभारत तथा धर्म शास्त्रों से चम्पा निवासी भली भांति परिचित थे। इसके अतिरिक्त और भी भारतीय बातें वहाँ पायी जाती थी।
उपर्युक्त कथन से स्पष्ट हो गया कि चम्पा (अनाम) में भारतवासियों ने जिस सभ्यता तथा संस्कृति का प्रसार किया था, वह आज भी वर्तमान है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि भारतीय संस्कृति का प्रभाव अधिक व्यापक था। इसलिए आज भी सारा विश्व उसके सामने नतमस्तक है।
लेखक - शिवकण्ठलालजी शुक्ल
 
 
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