 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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(ब्रह्मलीन श्रद्धेय स्वामी श्रीशरणानन्दजी महाराज) हम स्वयं अपने नेता बनें और यह समझें कि नेता किसे कहते हैं? और राष्ट्र किसे कहते हैं ? राष्ट्र में बल का उपयोग होता है और जो नेता है, वह समझदारी का उपयोग करता है, समझाता-बुझाता है। नेता उसी को कहते हैं।
आपके जीवन में जो बुद्धि का स्तर है, समाज में वही नेता का स्तर है। आपके जीवन में जो मन का स्थान है, समाज में वही राष्ट्र का स्थान है। मन के द्वारा इन्द्रियों पर शासन होता है, किंतु बुद्धि के द्वारा हम स्वयं अपने को समझाते हैं। जो अपने को समझा सके। क्या समझा सके ? समझा सके कि जाने हुए का अनादर नहीं करूंगा, मिले हुए का दुरुपयोग नहीं करूंगा, सुने हुए प्रभु में अश्रद्धा नहीं करूंगा। आप श्रद्धा करें या न करें, आपकी रुचि।
अगर आपने अपने को यह समझा लिया कि मैं जाने हुए का अनादर नहीं करूँगा, मिले हुए का दुरुपयोग नहीं करूँगा, सुने हुए प्रभु में अश्रद्धा नहीं करूँगा, तब परिणाम होगा कि जाने हुए का अनादर न करने से, सिर्फ अनादर न करने से क्या होगा?
जब आप जाने हुए का अनादर नहीं करेंगे, तब आपके जीवन में तीन प्रकार की स्मृति जाग्रत् होगी- कर्तव्य की स्मृति, स्वरूप की स्मृति और अपने प्रभु की स्मृति, अथवा यों कहिये कि जब आप जाने हुए का अनादर नहीं करेंगे, तब आपके जीवन में से संग का नाश होगा, असंगता प्राप्त होगी।
आपके जीवन में से अकर्तव्य का नाश होगा, कर्तव्य परायणता प्राप्त होगी। आपके जीवन में से आसक्तियों का नाश होगा, प्रेम का प्रादुर्भाव होगा। जाने हुए के आदर में ही कर्तव्यपरायणता, असंगता और आत्मीयता निहित है।
दूसरी बात यह कि जब आप मिले हुए का दुरुपयोग नहीं करेंगे, तब सबल और निर्बल में एकता होगी। यह जो सुन्दर समाज का निर्माण होता है, यह खाली स्कीमों से नहीं होता है, योजना ओंस नहीं होती है, कानूनों से नहीं होता है। सुन्दर समाज का निर्माण होता है - बल का दुरुपयोग न करने से, मिले हुए का दुरुपयोग न करने से।
जब हम मिले हुए का दुरुपयोग नहीं करते हैं, तब हमारे द्वारा दूसरों के अधिकार सुरक्षित होते हैं और जब हमारे द्वारा दूसरों के अधिकार सुरक्षित होते हैं, तो परस्पर एकता होती है। जब एकता होती है, तो स्नेह की वृद्धि होती है, विश्वास की वृद्धि होती है। जब परस्पर स्नेह और विश्वास की वृद्धि होती है, तब जो नहीं करना चाहिये, उसकी उत्पत्ति ही नहीं होती।
तब अपने-आप एक ऐसे सुन्दर समाज का निर्माण हो जाता है कि जिसको पुलिस की, फौजकी, न्यायालय की, लड़ाई के सामान की जरूरत ही नहीं होती। इस बात को सुनकर मेरे बहुत से मित्र यह सन्देह करते हैं, कहते हैं, 'महाराज! आप ऐसी जो बात कहते हैं, वह व्यक्तिगत रूप से तो बिलकुल ठीक मालूम होती है, किंतु सामूहिक रूप से ऐसा होना सम्भव नहीं है।
परंतु यदि आप गम्भीरता पूर्वक विचार करें, तो आपको यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि जो न्याय, जो ईमानदारी, जो प्रेम, जो श्रद्धा, जो विश्वास और जो सच्चरित्रता स्वयं आपके जीवन में आ जाती है, वह व्यापक हुए बिना नहीं रह सकती। इसीलिये व्यक्ति की सुन्दरता पर ही समाज की सुन्दरता निर्भर करती है और इसीलिये यह बात कही गयी है कि व्यक्ति अपने जीवन को सुन्दर बनाकर ही समाज में सुन्दरता ला सकता है।
जीवन सुन्दर कैसे होता है? जीवन सुन्दर होता है, सत्संग से। और हम सत्संग करने में क्या स्वाधीन नहीं हैं? हैं, सभी स्वाधीन हैं। अपने जीवन में से अपने जाने हुए असत्य के त्याग में हम सभी स्वाधीन हैं।
 
 
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