Published By:अतुल विनोद

क्या आसन ही योग है ? योग का सही अर्थ क्या है? योग से क्या प्राप्त होता है?.....अतुल विनोद

आत्मा का योग आत्मा से ही| यानि खुद का खुद से योग समस्या कहाँ है, आत्मा को आत्मा में ही स्थापित करने की ज़रूरत क्यों है? ये कुछ अजीब नहीं लगता? सब यही कहते हैं आत्मा को जानो? जब हम आत्मा हैं तो खुदको कैसे जाने? हम खुदसे ही अनजान हैं.. ये कैसी बात हुयी भला? ये ठीक उसी तरह है जैसे कोई अभिनेता किसी रोल को करते करते उसमे इतना रम जाए की वो खुदको ही भूल जाए|  

एक एक्टर बहुत साधारण है लेकिन उसे प्रधानमंत्री की भूमिका मिल जाए, अब वो उस रोल को ही अपना वास्तविक मानने लगे तो? जब तक फिल्म की शूटिंग चलेगी तब तक सेट पर सब उसे उसी तरह ट्रीट करेंगे, लेकिन शूट खत्म होने के बाद .. उसे अपनी हकीकत मैं लौटना होगा|  सेट के कपड़ों को उतार कर अपना वास्तविक रूप में आना उसका खुदसे खुदका योग है| आत्मा हमारा मूल स्वरुप है| शरीर और उसके साथ मिली पहचान कॉस्टयूम और रोल है| रोल निभाना ज़िम्मेदारी है लेकिन इसे जितनी जल्दी समझ लिया जाए उतना अच्छा है| 

ये भूमिका तो छोड़नी ही है| ये भुमिका प्रकृति की व्यवस्था के कारण वास्तविक नजर आती है|  इसके कारण हम एक आभासी "मैं" का निर्माण कर लेते हैं| जैसे बच्चे को पैदा होने के बाद से शेर का मास्क पहनाकर आईने के सामने लाया जाये| उसका जब भी आईने से सामना हो वो मास्क पहना हो? वो खुदको शेर का बच्चा ही समझेगा| ऐसे ही हम हैं अपने मास्क को ही हम "मैं" समझ रहे हैं| जैसे कोई रोबोट, कंप्यूटर सॉफ्टवेर या ऐप…  किसी खास जिम्मेदारी के लिए डिजाइन किया है|  हो सकता है कि एक समय बाद ये खुदको वास्तविक मानने लगें? भूल जाएँ कि वो कुछ नहीं सिर्फ एक उपकरण हैं जो पॉवर सोर्स से संचालित हैं| 

डाटा भी वो पॉवर से कनेक्ट होने के कारण एक्सेस कर पा रहे हैं| पॉवर के हटते ही उनकी कोई इंपॉर्टेंस नहीं| मनुष्य रुपी हार्डवेयर में यह "पावर" प्राण है| "मन" सॉफ्टवेर हैं| मशीन और मनुष्य में बुनियादी अंतर आत्मा का है| मशीन में मन रुपी सॉफ्टवेयर और प्राण रूपी ऊर्जा तो है| लेकिन आत्मा नही है| इसलिए मशीन नष्ट होगी तो आत्मा नहीं बचेगी, लेकिन मनुष्य नष्ट होगा तो उसकी आत्मा बची रह जायेगी| मशीन और देह भी परमात्मा का हिस्स्सा है लेकिन ये परमात्मा के भौतिक स्वरुप का| ईश्वर का अभौतिक, स्थाई, अपरिवर्तनशील स्वरुप आत्मा है| 

इस अभौतिक स्वरुप को जानना ही आत्म दर्शन है| क्यूंकि ये नष्ट नहीं होगा|  भौतिक स्वरुप ने खुदकी एक सत्ता बना ली है| इसलिए मुझे यानी मेरी आत्मा को मैं ही नहीं दिखाई देता| ये मास्क है| ये कैसे दिखेगा? श्री कृष्ण गीता में कहते हैं| दिखने वाला द्रश्य है देखने वाला द्रष्टा|  दोनों मैशअप हो गए हैं| .. जैसे पानी आटे में मिलकर आटा ही नज़र आता है|  देखने वाला स्वरुप सबको पता नहीं होता| उसका पता करना होता है|  परमात्मा शरीर में आत्मा के रूप में मौजूद है| आत्मा के आधार पर खड़े इस दिखने वाले “स्वरूप” चित्त ने खुदको ही भुला दिया है| योग इसी स्वरूप को खोजने और प्राप्त करने का नाम है| 

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