धर्म में महापाप : महापातक: सुरापान यह महापातक कहा गया है। 'सुरा' शब्द वेद में कई बार आया है। इसे द्यूत के समान ही पापमय माना गया है। सम्भवतः यह सधु या किसी अन्य मधुर पदार्थ से बनती थी। यह उस सोमरस से भिन्न है जो देवों को अर्पित होता था तथा जिसका पान सोमयाजी ब्राह्मण पुरोहित करते थे।
देखिए तैत्तिरीय संहिता, वाजसनेयी संहिता एवं शतपथ ब्राह्मण | इस ग्रन्थ में आया है - "सोम सत्य है, समृद्धि है और प्रकाश है; सुरा अगत्य है, विपता है और अन्धकार है।"
ऐसा लगता है कि काठक संहिया के बहुत पहले से ब्राह्मण लोग सुनकर पापमय समझते रहे हैं, "अतः ब्राह्मण मुरा नहीं पीता (इस विचार से कि) उससे वह पापमय हो जाएगा। छान्दोग्योपनिषद ने मुरापायी को पतित कहा है।
राजा अश्वपति कंकेय ने आत्मा वैश्वानर के ज्ञानार्थ समागत पांच विद्वान ब्राह्मणों के समक्ष गर्व के साथ कहा है कि उसके राज्य में न तो कोई पोर है और न कोई मद्यप" जब कि मनु ने मुरापान को महापातकों में गिना है, यात ने मद्यप को पंच महा पापियों में गिना है, तब हमें यह जानना है कि मुरा का तात्पर्य क्या है और सुरापान कब महापातक हो जाता है।
मनु के मत से गुरा भोजन का मल है और यह तीन प्रकार की होती है- (1) जोसी से बने, (2) जो आटे से बने एवं (3) जो मधूक (महुआ) या मधु से बने।
बहुत से निबन्धों में गुरा के विषय में सविस्तार वर्णन हुआ है और निम्न प्रतिपत्तियां उपस्थित की गयी है-
(1) सभी तीन उच्च वर्णों को आटे से बनी गुरा का पान करना निषिद्ध है और उनको इसके सेवन से महापातक लगता है;
(2) सभी आश्रमों के ब्राह्मणों के लिए मद्य के सभी प्रकार वर्जित है। किन्तु गौड़ी एवं माध्वी प्रकार की मुरा के सेवन से ब्राह्मण को उपपातक लगता है महापातक नहीं, जैसा कि विष्णु का मत है।
(3) वैश्यों एवं क्षत्रियों के लिए आटे से बनी मुरा के अतिरिक्त अन्य मुरा-प्रकार निन्ध नहीं है।
(4) शुद्र किसी भी प्रकार की सुरा का प्रयोग कर सकते है;
(5) सभी वर्गों के वेदपाठी ब्रह्मचारियों को सभी प्रकार की सुरा निषिद्ध है। विष्णु० ने सजूर, पनस फल, नारियल, ईस आदि से बने सभी मद्य-प्रकारों का वर्णन किया है। पौलस्त्य, शूलपाणि के प्रायश्चित्त विवेक एवं प्रायश्चित प्रकाश ने मुरा के अतिरिक्त 11 प्रकार की मयों के नाम दिये हैं।
मिताक्षरा ने सुरापान का निषेध उन बच्चों के लिए, जिनका उपनयन संस्कार नहीं हुआ रहता तथा अविवाहित कन्याओं के लिए माना है, क्योंकि मन् ने मुरापान के लिए लिंग-अन्तर नहीं बताया है और प्रथम तीन उच्च वर्णों के लिए इसे वर्ज्यं माना है। भविष्यपुराण ने स्पष्ट रूप से ब्राह्मण नारी के लिए सुरापान वजित किया है। किन्तु कल्पतरु का अपना अलग मत है।
उसके अनुसार स्त्री एवं अल्पवयस्क को हलका प्रायश्चित करना पड़ता है, जैसा कि हम आगे देखेंगे। वशिष्ठ एवं याश० का कथन है कि ब्राह्मण, क्षत्रिय या वंशय की सुरापान करने वाली पत्नी पति के लोकों को नहीं जाती और इस लोक में कुक्कुरी या शूकरी हो जाती है। मिताक्षरा का कथन है कि यद्यपि शूद्र को मय-सेवन मना नहीं है, किन्तु उसकी पत्नी को ऐसा नहीं करना चाहिए।
मुरापान का तात्पर्य है सुरा को गले के नीचे उतार देना। अतः यदि किसी व्यक्ति के ओष्ठों ने केवल सुरा का स्पर्श मात्र किया हो या यदि सुरा मुख में चली गयी हो किन्तु व्यक्ति उसे उगल दे, तो यह सुरापान नहीं कहा जाएगा और व्यक्ति को सुरा स्पर्श का एक हल्का प्रायश्चित करना पड़ेगा।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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