अश्रद्धालु एवं अनाधिकरी से अपने मार्ग अथवा साधनादि के विषय में वाद-विवाद करना भी कुसंग है। क्योंकि जब अनाधिकारी को सर्वसमर्थ महापुरुष ही आसानी के साथ बोध नहीं करा पाता, तब वह साधक भला किस खेत की मूली है।
यदि कोई परहित की भावना से भी समझाना चाहता है, तब भी उसे ऐसा न करना चाहिये, क्योंकि अश्रद्धालु होने के कारण उसका विपरीत ही परिणाम होता है, साथ ही उस अश्रद्धालु के न मानने पर साधक का चित्त अशांत हो जाता है। शास्त्रानुसार भी भक्ति-मार्ग को लेकर वाद-विवाद करना घोर पाप है।
भरत जी कहते हैं-
“भक्त्या विवदमानेषु मार्ग माश्रित्य पश्यतः तेन पापेन....!"
अर्थात् भरत जी कहते हैं कि भक्ति-मार्ग को लेकर वाद-विवाद कर्म सरीखा महान् पाप मुझे लग जाय यदि राम के वन जाने के विषय में मेरी राय रही हो।
अतएव न तो वाद-विवाद सुनना चाहिए, न तो स्वयं ही करना चाहिये।
यदि अनाधिकारी जीव इन विषयों को नहीं समझता, तो इसमें आश्चर्य या दुख भी न होना चाहिये, क्योंकि कभी तुम भी तो नहीं समझते थे।
यह तो परम सौभाग्य, महापुरुष एवं भगवान की कृपा से प्राप्त होता है कि जीव, भगवद्विषय को समझ कर उनकी ओर उन्मुख हो।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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