 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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अनेक व्यक्तियों के साथ नियमित कथन द्वारा तथा विश्व भर के पाठकों के ई-मेल पढ़ कर, मैं ने यह जाना है कि किसी के साथ जब कुछ भी प्रतिकूल घटित होता है सर्वप्रथम उन्हें अविश्वास की भावनाओं का अनुभव होता है। हालांकि प्रत्येक मनुष्य आत्म संदेह एवं अयोग्यता के उदासीन क्षण अनुभव करता है, परंतु मन ही मन सर्वाधिक व्यक्तियों का यह मत है कि वे अन्य व्यक्तियों से अधिक श्रेष्ठ हैं। उदाहरणार्थ अधिकतर व्यक्ति यह मानते हैं कि वे अपने पति या पत्नी की तुलना में अधिक दानी होते हैं, दूसरों का अधिक ध्यान रखते हैं तथा अपने सहकर्मचारीओं से उत्तम काम करते हैं। इसलिए जब भी उन के साथ कोई अप्रिय घटना होती है तो उन की सर्वप्रथम प्रतिक्रिया यह होती है कि ऐसा मेरे साथ नहीं हो सकता, मैं इसके योग्य नहीं।
कुछ समय पश्चात, जब आप यह स्वीकार करना आरंभ कर देते हैं कि किसी के साथ भी कुछ भी अप्रिय हो सकता है, मेरे एवं आप के साथ भी, तब एक और प्रश्न मन को परेशान करने लगता है - ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ? लोगों की पीड़ा की ऐसी बहुत भयानक कथाएं हैं जो हमें वास्तव में यह प्रश्न करने पर विवश कर देते हैं कि उन व्यक्तियों ने भला अपने जीवन में ऐसा क्या किया होगा कि उन को ऐसी कठोर परिस्थिति का सामना करना पड़ रहा है? और यदि उन्होंने कुछ किया भी हो तो क्या प्रकृति अथवा ईश्वर अथवा सृष्टि उन्हें क्षमा नहीं कर सकती? सत्य तो यह है कि कुछ प्रश्नों के उत्तर नहीं होते। कभी कभी कर्म, आकर्षण एवं प्रत्यक्षीकरण के सिद्धांत सभी विफल हो जाते हैं। हमारे पास मात्र कुछ परिकल्पनाएं, आश्वासन एवं संभावनाएं रह जाती हैं।
मनुष्य सुख एवं प्रसन्नता की प्राप्ति हेतु निरंतर प्रयास करता रहता है तथा उसे सदैव के लिए पकड़ कर रखना चाहता है। किंतु ऐसा करने पर वास्तव में केवल एक वस्तु ही सदैव के लिए रह जाती है, जो इन सब के विपरीत है - कष्ट। आप कुछ समय के लिए भोजन त्याग दें तो आप का शरीर भूख से पीड़ित होने लगता है, रात की निद्रा त्याग दें तो आप थकावट से पीड़ित होने लगते हैं, आप कुछ समय के लिए विश्राम करना त्याग दें तो आप मंद होने लग जाते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति किसी भी सुख प्राप्ति पर किसी भी प्रकार का छूट देना नहीं चाहती और व्यक्तिगत प्राथमिकताओं के प्रति उदासीन है। ऐसा क्यों? पीड़ा हमारे जीवन का एक अभिन्न अंग क्यों है? इससे पहले कि मैं इस विषय पर गहन रूप से चर्चा करूँ चलिए महाभारत से ली गई यह कथा पढ़ें।
युद्ध में विजय प्राप्त करने के पश्चात पांडव आभार प्रकट करने कृष्ण के पास गए। उन कृतज्ञ भाइयों की माता कुंती उनके साथ थीं..!
“कृष्ण मैं सदैव अपनी समस्याओं का भार ले कर आप के पास आती हूँ”, कुंती ने कहा । "आप की कृपा एवं आशीर्वाद के बदले में मैं ने आप को कुछ नहीं दिया है। एक भिक्षुक के समान मैं ने ग्रहण और केवल ग्रहण ही किया है। मुझे यह ज्ञात है कि मैं आप को कुछ नहीं दे सकती। पहले से ही आप के पास सब कुछ है, वास्तव में आप स्वयं ही सब कुछ हैं। मैं आप को जो कुछ भी अर्पण करूँ वह सूर्य को दीपक दिखाने के समान होगा।”
कुंती का हाथ पकड़ कर, कृष्ण ने कहा, “आप को मेरा आभार प्रकट करने की कोई आवश्यकता नहीं है। मैं तो केवल धर्म के मार्ग पर चल रहा था। मैं अत्यंत प्रसन्न हूँ कि आप पुन: राजमाता बनेंगी।”
“किंतु मैं अब भी सुखी नहीं हूँ कृष्ण, क्योंकि मुझे भय है। आज भी मैं आभार व्यक्त करने नहीं आई हूँ, किंतु एक अंतिम कामना लेकर आई हूँ।”
कृष्ण हस्ते हुए अपने स्थान पर स्थित रहे और शांति एवं आतुरता से कुंती को देखते रहे..!
कुंती ने कहा, “मुझे तीव्र असुरक्षा की भावनाओं का अनुभव हो रहा है। दुखों एवं समस्याओं के साथ निरंतर संघर्ष करते करते, मेरे जीवन की प्रत्येक महत्वपूर्ण वस्तु तथा व्यक्ति नष्ट हो गए हैं। मैं ने अपना अधिकतर जीवन भय के साथ जिया है क्योंकि जीवन में आनंद के क्षण अस्थायी तथा अल्प थे। और अब अंत में प्रसन्नता और सुख जब मेरे द्वार पर आ खड़े हैं, मुझे यह भय है कि इस आनंद एवं उत्साह की अवस्था में मुझे कहीं आप का विस्मरण ना हो जाए। इसलिए हे कृष्ण मैं आप से बिनती करती हूँ कि मेरे कष्ट को दूर ना करें ताकि मैं सदैव आप का स्मरण करती रहूँ। मैं आप को खो देना नहीं चाहती।”
सुख एवं दुख में, हमारी प्रार्थना की रचना ऐसी की गई है कि हम ईश्वर को उस की कृपा के बदले में कुछ नहीं देते। वास्तव में हम कुछ दे भी नहीं सकते। प्रार्थना का लक्ष्य यह होता है कि ईश्वर के साथ हमारा बंधन अखंड रहे। जिस प्रकार एक बालिका अपनी माँ के लिए रोती है और जिस प्रकार एक मछली जितना भी ऊँचा कूदे किंतु वापस फिर पानी में ही लौट कर आती है वैसे ही हमारे दुख हमें ईश्वर के साथ, प्रकृति के साथ तथा एक दूसरों से जोड़ के रखते हैं।
यद्यपि किसी को भी अपने जीवन में कष्ट की अभिलाषा नहीं होती, कुंती माता को भी नहीं, किंतु अपनी इच्छाओं की अभिव्यक्ति द्वार उन्होंने हमें मानव अस्तित्व का सत्य दिखाया है। कष्ट द्वारा आप अपने मूल स्रोत के साथ जुड़े रहते हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि हमें और अधिक दुख माँगने चारों ओर जाना चाहिए (वैसे भी आप ऐसा कदापि नहीं करेंगे), किंतु मैं यह संकेत कर रहा हूँ कि पीड़ा को किसी अन्य दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। जैसे कि कोई ऋतु के समान जो समय के साथ चली जाती है। “में पीड़ा के योग्य नहीं हूँ” यह वाक्य प्रकृति नहीं समझती। “ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ” यह एक ऐसा प्रश्न है जिस का उत्तर प्रकृति नहीं देती। इसलिए, यदि हम वास्तव में पीड़ा की अनुभूति से उपर उठने की इच्छा रखते हैं, तो हमें पीड़ा के किसी और पहलू की ओर ध्यान देना होगा।
ऐसा ही एक दृष्टिकोण है शक्ति। पीड़ा हमें जो शक्ति प्रदान करती है, सुख हमें वह कदापि नहीं दे सकता। पीड़ा आप से गहन परिश्रम कराते कराते आप को प्रबल बनाती है जब कि सुख आप को विश्राम की अवस्था में डाल देता है। पीड़ा वह प्रखर सूर्य है जिस के कारण आप शीतलता के मूल्य को जान ने लगते हैं। कष्ट एक ठंडी रात्रि है जिस के कारण हम सूर्य की कामना करते हैं। वह हमें वास्तविकता के जोड़े रखता है। यदि आप ईश्वर पर विश्वास करते हैं, तो पीड़ा आप की प्रार्थना की सत्यता बढ़ाती है। वह आप के और ईश्वर के व्यक्तिगत संबंध को भक्ति से भर देती है। और पीड़ा हमें भूमि पर टिकाए रखती है, वह हमें विनम्र बनाती है। मेरा मानना है कि विनम्रता एक सार्थक एवं संतोषमय जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंश है। जब आप कष्ट का अनुभव करते हैं तब आप के भीतर कुछ सदैव के लिए बदल जाता है। आप और अधिक दृढ़, बुद्धिमान, कृतज्ञ एवं सहानुभूतिशील बन जाते हैं।
मैं इस बात से पूर्ण रूप से सहमत हूँ कि आप को अनावश्यक रूप से पीड़ा को निमंत्रण देने की तथा जीवन की प्रशंसा करने के लिए अभावपूर्ण जीवन जीने की कोई आवश्यकता नहीं है। वैसे भी पीड़ा कोई ऐसी अतिथि नहीं जिसे निमंत्रण की आवश्यकता हो। किंतु वह जब भी आप के जीवन में आती है, जो वह नित्य रूप से आएगी, तब आप को केवल धीरज एवं शांति से उस का सामना करना होगा। आप ना उसके साथ लड़ सकते हैं और ना उसे भगा सकते हैं। आप को केवल धैर्य से उसे सहना होगा। आत्मा की ऐसी अंधेरी रात्री में श्रद्धा का दीपक जलाएं। समर्पण उस दिये की बाती है ओर भक्ति उसका तेल। फिर पीड़ा संपूर्ण कमरे में नहीं फैलेगी, केवल कुछ क्षण के लिए कुछ कोनों में ही रहेगी।
हर परिस्थिति में कृतज्ञ बने रहें क्योंकि कृतज्ञता कष्ट का मारक है। वह आप को उन्नत समय में भी नम्र एवं सशक्त बनाये रखती है। कृतज्ञता की उपस्थिति में कष्ट भाग जाता है; उनका सहवर्ती होना असंभव है। संभवत: थोड़ी पीड़ा वहाँ रह जाएगी किंतु कृतज्ञता का मलहम धीरे धीरे पीड़ा के घाव को भर देता है। जैसे की महात्मा बुद्ध ने कहा है - पीड़ा अनिवार्य है किंतु दु:ख स्वैच्छिक है।
हमारी जो वस्तु नष्ट हो गयी हो उसे खोजने के प्रयत्न में हमारे पास जो वस्तु है कहीं हम उसे ना नष्ट कर दें।
शांति स्वामी
 
                                मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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