Published By:बजरंग लाल शर्मा

क्या स्वप्न के जीव के अंदर आत्मा नहीं होती ?  

"ए सब अनात्मा जड़ कहे, इनते  परे है ब्रह्म।            

तह मन वचन पहुंचे नहीं, तो मिटे कैसे भरम।।"          

इस स्वापनिक जगत में जो कुछ भी दिखाई देता है यह सब माया है। माया को ही शास्त्रों में प्रकृति कहा है। रचना करने वाले की इच्छा का नाम ही प्रकृति है तथा इसे जड़ कहा गया है।

जीव को शास्त्रों में अनादि कहा है। जीव का शरीर दो तत्वों-जड़ और चेतन से बना है। जड़ का मूल माया तथा चेतन का मूल ब्रह्म है। इन दोनों तत्वों को भी अनादि कहा गया है। जब इस स्वप्न जगत की रचना नहीं हुई थी तब भी जीव तो था परंतु इसके पास शरीर नहीं था और यह अक्षर ब्रह्म की कल्पना में बीज रूप में था। 

कल्पना रूपी बीज यदि नहीं होता तो अकेला जड़ तथा चेतन इस जीव की रचना किस प्रकार कर सकता था? यह सारी क्रिया मोह जल रूपी नींद में होती है। नींद में बनने वाले सारे पदार्थ असत्य होते हैं।

जड़ (प्रकृति) अथवा माया वास्तव में असत्य है, क्योंकि यह मिटने वाली है। इस मिटने वाली जड़ रूपी माया के साथ जो चेतन मिलता है वह भी असत्य  है क्योंकि असत्य के साथ असत्य ही मिल सकता है। प्रकाश रूपी सत्य, अंधकार रूपी असत्य के साथ नहीं मिल सकता है। अत: जड़ प्रकृति के साथ मिलने वाला चेतन भी असत्य है।

ब्रह्म तथा माया की अनादि अवस्था सत्य है परंतु इनको असत्य होकर ही छाया के रूप में इस जड़ प्रकृति के साथ मिलना होता है।

इस दिखाई देने वाले संसार में चल तथा विचल दो प्रकार के पदार्थ हैं। इन दोनों में ही चेतन तत्व होता है। यह चेतन तत्व अनादि ब्रह्म का छाया रूप है, यहां इस छाया रुपी ब्रह्म को ही अनात्मा कहा गया है।

अनादि ब्रह्म सत्य है जो इस असत्य रूपी चेतन से अलग है। जीव का मन और वचन दोनों ही उस सत्य ब्रह्म के पास नहीं पहुंच सकते हैं। अत: जीव के द्वारा असली ब्रह्म को किस प्रकार जाना जा सकता है एवं जीव का भ्रम कैसे दूर हो सकता है?

सत्य के बिना असत्य खड़ा नहीं हो सकता है। जड़ प्रकृति के साथ प्रतिबिंबित चेतन के मिलने के कारण ही असत्य प्रकृति दिखती है। इस नश्वर संसार में जब तक जीव रहेगा, प्रतिबिंबित चेतन इसके साथ जुड़ा रहेगा।

आत्मा का संबंध तो अनादि सत्य ब्रह्म से ही है आत्मा इस नश्वर संसार में नहीं है। यहां जीव के साथ जो प्रतिबिंबित ब्रह्म है वह आत्मा नहीं बल्कि अनात्मा है। आत्मा तो दृष्टा है, निर्द्वन्द है, निर्विकार है, निराकार है, निर्लिप्त है। 

यह जीव के साथ लिप्त नहीं है। यह गर्भ में भी नहीं जाती है तथा मानव जीव से सिर्फ जाग्रत अवस्था में ही अपने सूक्ष्म रूप से जुड़ती है। स्वप्न की रचना करने वाला दृष्टा है वह अपने अंतर्मन के द्वारा संसार रूपी दृश्य को बाहर से देखता है। यह आत्मा मानव शरीर के अंदर नहीं है।                  

बजरंग लाल शर्मा                                                                            


 

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