भगवान को पिता के रूप में समझने से कहीं अधिक पुत्र के रूप में स्वीकार करना श्रेष्ठ.
भगवान को पिता के रूप में समझने से कहीं अधिक पुत्र के रूप में स्वीकार करना श्रेष्ठ है। पिता और पुत्र के सम्बन्धों में पुत्र पिता से कुछ पाने की लालसा रखता है। जबकि पिता के साथ पुत्र का सम्बन्ध होने पर पिता पुत्र को हमेशा ही कुछ-न-कुछ देने को तत्पर रहता है। इसलिए भगवान माधव श्रीकृष्ण के साथ तो पुत्र का सम्बन्ध पिता की अपेक्षा कहीं श्रेष्ठ है।
यदि हम भगवान को पिता के रूप में स्वीकार करते हैं तो हम अपनी आवश्यकताओं के लिए पिता के सामने हाथ फैलाते हैं। यदि हम भगवान को पुत्र के रूप में स्वीकार करेंगे तो बचपन से ही हमारा कार्य उसकी सेवा करना होगा। पिता बचपन से ही पुत्र का अभिभावक होता है।
श्रीकृष्ण की माता यशोदा सोचती है कि यदि वह कृष्ण को पर्याप्त भोजन नहीं देगी तो उसका पालन कैसे होगा और वह कैसे पुष्ट होगा तथा वह भूल जाती है कि श्रीकृष्ण परमेश्वर हैं और त्रिलोक के आधार हैं। वह यह भी भूल जाती है कि श्रीकृष्ण ही जीवों की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। वही भगवान यशोदा के पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं।
यशोदा सोच रही है कि यदि वह उसे पर्याप्त भोजन नहीं देगी तो वह मर जायेगा। यही प्रेम है, वह यह भूल जाती है कि श्रीकृष्ण एक भगवान हैं और आज उसके सामने एक शिशु के रूप में प्रकट हुए हैं। आसक्ति का यह सम्बन्ध अत्यंत उत्कृष्ट और पवित्र है। इसे समझने में समय लगता है। परन्तु यह एक ऐसी स्थिति है, जहाँ हम भगवान से यह कहने के बदले, हे ! भगवान हमें प्रतिदिन आहार दीजिए। अब यह न कह कर हम यह सोच सकते हैं कि यदि हम भगवान को आहार नहीं देंगे तो भगवान का जीवन कैसे चलेगा ? यह परम प्रेम का आनंद है। यशोदा मैया उन्हें मातृ-भाव से प्रेम करती हैं।
वास्तव में माता-पिता में समर्पण होता है। वे अपने पुत्र की समस्त मनोकामनाएं पूरी करने का प्रयास करते हैं। जबकि पुत्र में प्राप्ति का भाव होता है। ऐसा कहा जाता है कि पुत्र ‘पु’ नामक नरक से पिता की रक्षा करने के कारण, पुत्र कहलाता है। परन्तु वह भी मरने के बाद; मरने के बाद किसने क्या देखा है। इस सबको प्रमाण के रूप में तो इस समय प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता। जबकि पिता या माता पुत्र की जीते-जी पूर्ण रक्षा एवं पालन-पोषण करते हैं। यह सत्य तथा तथ्य पूर्ण है, इसे झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। पिता के निमंत्रण-पत्र पर पूरा परिवार समा सकता है, पर पुत्र के निमंत्रण पर यह संभव नहीं है।
पुत्र का संपत्ति पर सहज अधिकार होता है, जबकि पिता समर्पण एवं प्रतिदान में ही विश्वास करता है। यह एक सामाजिक नियम और सच्चाई है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। यहाँ पिता-पुत्र में दूरी करना नहीं, अपितु स्वाभाविक सत्य की स्वीकृति मात्र है। यह सदा से होता रहा है और सदा होता रहेगा। यह भावनाओं का प्रश्न है। नजर बदलते ही नजारा भी बदल जाता है। अधिकार में सुख नहीं अपितु प्रतिदान में ही सुख है; दृष्टिकोण बदलिए दृष्टि भी बदल जाएगी। अत: भगवान के सम्बन्ध में भी दृष्टिकोण बदलना आवश्यक है।
हमें स्वयं पितृ-भाव उत्पन्न करना होगा तथा भगवान के प्रति पुत्र-भाव उत्पन्न करना होगा। ताकि हमारी भिखारी की वृत्ति एवं प्रवृत्ति समाप्त हो सके। बार-बार झोली फैलाने से कोई लाभ लेना नहीं अपितु देना सीखो। तभी देवता बन पाओगे। भगवान भाव के अतिरिक्त चाहता भी कुछ नहीं। याचना के भाव को नष्ट करके प्रार्थना के भाव को जागृत करने का हमें प्रयास करना चाहिए।
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