 Published By:धर्म पुराण डेस्क
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किसी बदलाव का कुछ तयशुदा तरीका नहीं लेकिन, बदल पाता है जो खुद को वही सबको बदलता है।
बदलते दौर के साथ बाहरी तामझाम तो हम सब खूब बदलते हैं पर अपनी शख्सियत को सामने रखकर जरा सोचा जाए कि क्या बढ़ती उम्र और अनुभवों के विस्तार के साथ कुछ भीतरी फेरबदल हुए हैं?
वैचारिक उदारता, नजरिए की परिपक्वता, कलात्मक और सृजनात्मक सौंदर्य में इजाफा हुआ है? यदि इन सवालों के जवाबों में हम और आप कुछ संशय या हिचक महसूस कर रहे हैं तो आइए गौर फरमाया जाए इन बिंदुओं पर
जिंदगी भोर है, सूरज से निकलते रहिए ..
एक सुप्रसिद्ध वक्ता कहते हैं कि 'सर्वश्रेष्ठ जिंदगी जीने के लिए उसका डिजाइन बनाना पड़ता है और यह डिजाइन आप खुद बना सकते हैं। क्योंकि आपका मस्तिष्क ही सबसे बड़ा आर्किटेक्ट होता है'।
याद कीजिए उत्कर्ष से जुड़े वे रचनात्मक सपने, कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश जिनकी सुगबुगाहट तरुणाई के दौर में उठी तो थी पर जिंदगी की आपाधापी और जिम्मेदारियों के शोरगुल से घबराकर मन के किसी कोने में दुबकी सहमी बैठी है तो देर किस बात की.
अब इन ठहरे, सहमे, सकुचाए से सपनों को अपने जज्बे की मदद से निकालकर इन पर काम कीजिए। नए दौर के नए सपने भी रोपिए फिर देखिए जिंदगी किस तरह खिलखिला उठेगी।
सिर्फ देखने को नादां, देखना नहीं कहते...
खलील जिबान कहते हैं कि चीजों को बेहतर तरीके से आंकने के लिए सोच विचार भी आला दर्जे का होना चाहिए।
अक्सर हम अपनी सतही जानकारियों और सीमाबद्ध सोच के आधार पर किसी व्यक्ति चीज या परिस्थिति का तपाक से अच्छा या ज्यादातर नकारात्मक आकलन कर बैठते हैं।
पूर्वाग्रह स्थापित मान्यताओं और तयशुदा धारणाओं के जाले, कुहासे और धुंध को हटाकर देखा जाए तो कई चीजें आश्चर्यजनक रूप से उजली, चमकीली और उम्मीद भरी नजर आने लगेंगी।
तमाम स्थापित तथ्य स्व आकलन में भी बाचक बनते है। इसलिए चीजों को सिर्फ सतही तौर पर मत देखिए बल्कि अपने नजरिए में उदारता, समग्रता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण का समावेश कीजिए धीरे धीरे आपकी जीवन दृष्टि उन्नत और सकारात्मक होने लगेगी।
जीवन के फलसफे को समझें ..
'जितना कम सामान रहेगा, सफर उतना आसान रहेगा....
एक सुपरिचित गीतकार के इस खूबसूरत फलसफे को क्यों न हम अपनी जीवन यात्रा के साथ जोड़ते हुए अपने दिलो दिमाग और आत्मा को कचोट रहे अपराध बोध, ठेस और पश्चाताप के बोझ को परे झटकने की कोशिश करें ताकि इस व्यर्थ के असवाब से हमारी यह शुभ यात्रा बोझिल, उबाऊ और नीरस न होने पाए।
तमाम कटु अनुभवों और घटनाओं से जब जागे तभी सवेरा की तर्ज पर सबक तो जरूर लीजिए पर वक्त बेवक्त इन पर रोना, बिसूरना और सुबकना छोड़ दीजिए।
इसी तरह अपनी अंतहीन और बेसिर पैर की अपेक्षाओं का भार दूसरों पर लादना या दूसरों की ऐसी ही अपेक्षाओं को जब-तब वहन कर खरा साबित होने की कोशिश करना भी गलत है।
उक्त दोनों ही कार्य खुद आपकी शख्सियत पर ही विपरीत असर डालते हैं इसलिए ऐसे मापदंडों के निर्धारण या पालन के वक्त हमेशा विवेक का आईना सामने रखें।
आहिस्ता-आहिस्ता:
तमाम जरूरी और गैरजरूरी प्रतिस्पर्धाओं, बेहिसाब ख्वाहिशों, रोजी-रोटी की भागमभाग और मशीनरी दिनचर्या को परे छिटककर जरा सोचा जाए कि इस अंतहीन दौड़ में शामिल होकर हम कितना कुछ नजरअंदाज करते जा रहे हैं।
खुशी के किसी धमाकेदार और भारी भरकम पैकेज की मृगमरीचिका ने हमारे पैरों में रफ्तार की ऐसी चरखियां लगा दी है कि हम अपने चारों तरफ खनखनाती, चमचमाती खुशियों की रेजगारी को नजरअंदाज करते रहते हैं।
तकरीबन रोजाना घटने वाली सहानुभूति के लिए न जाने कितने सहज उपलब्ध अवसर भी कभी हमें रोमांचित ही नहीं करते। शोध बताते हैं कि 'जीवन में मुफ्त में मिलने वाली चीजों से सबसे ज्यादा खुशी हासिल होती है जैसे दोपहर की झपकी या बगीचे में चहलकदमी'।
भले ही ठहरना मुनासिब न हो पर धीमे-धीमे तो चल ही सकते हैं ताकि चहुं ओर बिखरे पड़े खुशी के इन नन्हे कलदारों को बटोरकर आंतरिक समृद्धि में इजाफा कर सकें।
 
 
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