अर्जुन ने जिज्ञासा प्रकट की, “प्रभु! आपका जन्म तो कुछ काल पूर्व ही हुआ है फिर आपने सूर्य को इसे सहस्त्रों वर्ष पहले कैसे सुनाया था?” श्री कृष्ण ने उत्तर दिया, “हे पार्थ! मेरे और तेरे न जाने कितने जन्म हो चुके हैं। उस सब को तू नहीं जानता, किंतु मैं अवश्य जानता हूँ। मैं अजन्मा और अविनाशी होते हुए भी अपनी प्रकृति को अपने अधीन करके अपनी योगमाया से प्रकट होता हूँ। हे अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं ऋषि-मुनियों का उद्धार करने तथा पापियों का नाश करके धर्म की स्थापना करने के लिए प्रकट हुआ करता हूँ। मेरा जन्म तथा कर्म दिव्य है।
“हे कौन्तेय! मुझे अपने भक्त अत्यंत प्रिय हैं। भक्त मुझे भेजते हैं और मैं भक्तों को भजता हूँ। जो भक्त मुझे जिस प्रकार से भजता है मैं उसे उसी प्रकार का फल देता हूँ। संसार के समस्त मार्ग मुझ तक ही पहुँचते हैं। मुझे कोई भी किसी भी रूप में भज सकता है। जो मनुष्य शीघ्र सिद्धि प्राप्त करने के लिए देवताओं को भजते हैं, मैं उन्हें देवताओं के रूप में सिद्धि प्रदान करता हूँ, और जो अपना कार्य सिद्ध करने के लिये प्रेत साधना करते हैं मैं उनके कार्य को प्रेत रूप में सिद्ध करता हूँ। किन्तु सिद्धियाँ क्षणिक हैं और सिद्धि प्राप्त करने वाले मनुष्य को मोक्ष प्राप्त नहीं होता। केवल मुझे प्राप्त करने वाले मनुष्यों की भक्ति कभी समाप्त नहीं होती। मुझे प्राप्त करने वाला मोक्ष भी प्राप्त कर लेता है।”
अर्जुन ने पूछा, “हे वासुदेवा! कृपा करके मुझे कर्म तथा अकर्म का भेद समझाइये।” श्री कृष्ण बोले, “हे अर्जुन! बड़े-बड़े ज्ञानी भी कर्म और अकर्म में भेद करने में असमर्थ हो जाते हैं अतः इसके भेद को मैं तुम्हें अच्छी प्रकार से समझाता हूँ। जो कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म देखता है वही मनुष्य श्रेष्ठ तथा बुद्धिमान होता है। जिसने समस्त भोगों को त्याग दिया है, जिसने शुद्ध अन्तःकरण से सम्पूर्ण इन्द्रियों सहित मन को जीत लिया है, जो बिना इच्छा के प्राप्त हुये पदार्थों से सन्तुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या, द्वेष, हर्ष, शोक, मोह, अभिमान, एवं आसक्ति का अभाव होता है और जो फल की आशा को त्याग कर शरीर से कर्म करता है वही कर्म योगी मनुष्य मुझमें लीन होकर मोक्ष को प्राप्त होता है।
मानव धर्म, सनातन धर्म का एक महत्वपूर्ण पहलू है..!!
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