Published By:धर्म पुराण डेस्क

जीवन यात्रा और गुरु की आज्ञा 

गुरु आज्ञा का महत्व, गुरु आज्ञा से क्या होता है| 

इंसान संसार की किसी भी वस्तु को छोड़ना नहीं चाहता और सत्य भी प्राप्त करना चाहता है। उसके समक्ष दो मार्ग है और चुनाव भी उसके स्वयं के हाथ में है। एक आध्यात्मिक मार्ग है जो शान्ति प्रदान करता है और दूसरा मार्ग है. विषय वासनाओं का और सांसारिक पदार्थों का, जो अशान्ति के गहरे समुद्र में डुबो देता है। 

इंसान इन दोनों रास्तों पर चलने के लिए स्वतंत्र है। यह निर्णय उसके अपने हाथ में है। वह किसी भी मार्ग का चयन कर सकता है। जैसे एक बार किसी मार्ग पर एक व्यक्ति चला जा रहा था। चलते-चलते उसने देखा कि जिस रास्ते पर वह चल रहा है, वह रास्ता दो भागों में विभाजित हो गया। एक रास्ते पर बहुत से कांटे बिखरे पड़े थे, ऊंची-नीची डगर थी और दूसरा रास्ता बहुत ही स्वच्छ था और फूलों से भरा हुआ था। 

यह देख कर वह आदमी अवाक रह गया। वह उस मार्ग की ओर चल पड़ा जो साफ और पुष्पों से भरा हुआ था। थोड़ा दूर चलने पर उसने वहां पर लिखा एक संदेश पढ़ा कि यह मार्ग मृत्यु की ओर जाता है। जब उसने यह पढ़ा तो उसके कदमों की गति रुक गई, वह वापस चला आया और अब जब दूसरे मार्ग के विषय में जानने के लिए उस ओर बढ़ा तो वहां भी एक संदेश लिखा था कि यह मार्ग परमात्मा की ओर ले जाने वाला है। 

दोनों रास्तों के प्रति वहां साफ साफ लिखा था किन्तु निर्णय अब इंसान के हाथ में है ईसा मसीह कहते हैं कि बहुत से लोग महापुरुषों के वचनों को श्रवण कर उनके द्वारा बताए मार्ग पर चलना चाहते हैं किंतु थोड़ी सी विपत्ति आ जाने पर वह शुभ का मार्ग छोड़ देते हैं। जो बीज कंटीली झाड़ियों में गिर गये वे भी बेकार हो जाते हैं। 

ठीक ऐसे ही जो लोग सत्संग प्रवचन तो श्रवण करते हैं, किन्तु धन धान्य के लोभ में दुनिया की चिंता में उन प्रवचनों को भूल जाते हैं, वे ऐसे ही झाडियों में गिरे बीजों के समान है। ये वे लोग हैं जो सत्संग प्रवचनों का श्रवण तो करते ही हैं साथ ही साथ वह बुरे कार्यों से भी अपने आप को बचा नहीं पाते हैं। 

ऐसे लोग गुरु आज्ञा की अवहेलना करते हैं। लेकिन यह नियम है कि गुरु आज्ञा में रहकर ही जीव सत्य को प्राप्त कर सकता है। जिस आध्यात्मिक मार्ग पर इंसान चलना चाहता है वह उस मार्ग से अनभिज्ञ है। वह यह भूल जाता है कि गुरु इस मार्ग में आने वाली सब मुश्किलों को जानता है और वह अपने शिष्य को मंजिल तक पहुंचा सकता है। जैसे एक मां अपने बच्चे का हाथ पकड़कर उसे चलना सिखाती है वैसे ही गुरु भी भक्ति मार्ग पर बढ़ता है तो उसके मार्ग में आने वाली सभी बाधाएं स्वतः ही समाप्त हो जाती हैं। 

संत कबीर तो यहां तक कहते हैं कि गुरु आज्ञा में रहने वाले शिष्य का तो काल भी कुछ अनिष्ट नहीं कर सकता। तीनों लोकों में उसे कोई भय नहीं| 

गुरु को सिर पर राखिए चलिए आज्ञा माहि।

कहि कबीर तहि दास को तीन लोक डर नाहि ।। 

परन्तु यदि कोई गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करता है तो उसके लिए चारों ओर काल ही काल है गुरु का शब्द उल्लंघ के जो सेवक कहीं जाये। जहां जाए तहा काल है कहि कबीर समझाये ||

आशुतोष जी महाराज कहते हैं जैसे श्री भागवत पुराण में राजा भरत के विषय में आता है कि वह राज्य त्याग कर भक्ति के लिए चल पड़े। गुरु ने बहुत समझाया कि आश्रम में रह कर ही सेवा और साधना करो। परन्तु भरत नहीं माने और कहा गुरुदेव ! मैं इसी जन्म में साधना कर मोक्ष प्राप्त करना चाहता हूं। 

गुरु के समझाने पर भी भरत ने एक न सुनी और जंगल की ओर साधना के लिए चल पड़े एक दिन भरत की कुटिया के पास एक मृगशावक आया जो अपने साथी मृगों से बिछड़ गया था। भरत ने विचार किया- यदि मैंने इसे न संभाला तो हो सकता है कि यह किसी जंगली जानवर का शिकार बन जाये, इसलिए मुझे इसे अपने पास ही रखना चाहिए। भरत उसे अपने पास रख लेते हैं और प्रतिदिन उसकी सेवा करने लगे। 

ऐसा करते-करते भरत को उससे बहुत अधिक मोह हो गया और जब भरत का अंतिम समय निकट आया तो वे ध्यान में बैठ गए लेकिन उनके मन में यही विचार आता रहा कि मेरे बाद इस मृग की देखभाल कौन करेगा? इसी विचार के कारण भरत को अगले जन्म में मृग बनना पड़ा। 

कहने का तात्पर्य है कि गुरु आज्ञा में रहकर ही एक साधक अपनी मंजिल को प्राप्त कर सकता है।


 

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