Published By:धर्म पुराण डेस्क

जानिए क्या है विज्ञानवाद, उदार मानववाद और स्वार्थपरता की वास्तविकता

आधुनिक समाज का प्रबल विश्व दृष्टिकोण एक मनोकल्पना है जिसे उदार मानववाद कहा जाता है। यह तथाकथित “वैज्ञानिक दृष्टिकोण" से ली गई है और लोगों को भ्रमित कर यह सोच दे रही है कि कोई नियन्ता नहीं है, कोई परम सत्य नहीं है और सब वस्तुओं के अस्तित्व के पीछे कोई कारण नहीं है तथा यह ब्रह्माण्ड स्वतः अदृश्य वैज्ञानिक नियमों से चल रहा है। 

बिग बैंग थियरी यह दावा करती है कि एक ऐसा समय था जब कुछ नहीं था, तब अचानक सब कुछ आ गया - बिना किसी कारण, बिना किसी वस्तु के, और बिना किसी के हस्तक्षेप से। 

विज्ञान का ढोंग करने वाली बकवास विज्ञानवाद की उत्पत्ति है एक ऐसा हठी विश्वास कि आधुनिक विज्ञान भौतिकतावादी नियमों द्वारा सब कुछ समझा सकता है। यह बकवास आध्यात्मिकता को स्वीकार नहीं करती और निजी इच्छाओं की पूर्ति के अलावा जीवन के अन्य किसी उद्देश्य को नहीं मानती। यह सब भगवद्गीता (16.8) में भगवान कृष्ण के नास्तिक दृष्टिकोण के विषय में कथनों को प्रतिपादित करता है और प्रमाणित करता है कि यह विषैला समाज आसुरिक है।

उदार मानववाद मुख्य रूप से नास्तिकतावाद का विकास है, जो मनुष्यों की श्रेष्ठता, चाहे वह व्यक्तिगत हो या सामूहिक, को बढ़ावा देता है और धार्मिक मान्यताओं या स्थापित सिद्धान्तों की बजाए तर्क तथा प्रमाण द्वारा निर्देशित होने का दावा करता है। 

यह स्पष्ट रूप से पश्चिमी उपक्रम है, जिसकी जड़ें 2500 वर्ष पूर्व यूनान के दार्शनिक प्रोटागोरस में हैं। वह स्वयं घोषित अनीश्वरवादी था जिसने घोषणा की थी कि "मनुष्य सभी वस्तुओं का मानदण्ड हैं" और इस बात पर बल दिया की किसी भी बात को समझने के लिए लोगों का अपना नज़रिया ही सर्वश्रेष्ठ है। 

वाल्टेयर, रूसो, डार्विन, मार्क्स, फ्रॉयड, और सारट्रे के जैसे हाल ही के प्रभावशाली पश्चिमी विचारकों ने उदार मानववाद का विकास किया। ये सभी “परम सत्य से अनभिज्ञ, भौतिकतावाद में पूरी तरह से लिप्त थे।"

उदार मानववाद परिवर्तित होता है नैतिक सापेक्षवाद में वह विचारधारा जिसके अनुसार क्या सही है और क्या गलत, इसका कोई निश्चित मापदंड नहीं है एवं नैतिकता 'व्यक्ति विशेष द्वारा निर्धारित' होती है। 

चाहे कुछ मानववादी दार्शनिक उच्च मूल्यों से प्रेरित हैं, फिर भी उदारवादी मानववाद का अंतत: परिणाम होता है सूअर जैसा मनोभाव – “खाओ, पिओ और मौज करो क्योंकि कल हम मर जाएँगे।" क्योंकि सारे जीवों को एक बार ही जीने का मौका मिलता है और इसलिए हर किसी को शांति से अपनी निजी खुशी को प्राप्त करने के लिए एक सीमा तक स्वतंत्र होना चाहिए, जब तक वह सीमा दूसरों को नुकसान नहीं पहुँचाती।

उदारवादी मानववाद निजी अधिकारों (विशेषकर आज के समय में स्त्रियों के तथा समलैंगिकता के अधिकारों) को प्रोत्साहन देते हुए एक "बिना भगवान के भगवद्धाम" की खोज में लगा हुआ है। चाहे यह परोपकारी बनने के लिए है, किन्तु निजी अधिकारों पर बल देने का वास्तविक परिणाम है स्वार्थ की सभ्यता। "पा लो, जो तुम पा सकते हो" दूसरों के बारे में न के बराबर सोचना या उनके लिए त्याग की भावना का थोड़ा विचार होना और अपने हित के लिए काम करना। 

ऐसा स्वार्थ आधुनिक समाज का प्रतीक है और इसकी प्रमुख विषैली वृत्तियों को स्थापित करता है शोषण, द्वेष, कामवासना, लोभ, क्रोध और ये सब भयंकर मुसीबतों की नींव रखते हैं जिनसे आज की मानवता जूझ रही है, चाहे वह पर्यावरणीय त्रासदी हो, वैवाहिक विघ्न हो, मनोवैज्ञानिक समस्याएं हों, बेकार की हिंसा हो या साहूकारों, राजनीतिज्ञों और बड़े-बड़े संस्थानों द्वारा ठगी हो। इन सब विसंगतियों की जड़ें घटिया स्वार्थ भावना में हैं, जो कि कृष्ण से द्वेष से उत्पन्न होती हैं।


 

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