Published By:धर्म पुराण डेस्क

अपने शुद्ध रूप को जानो आप का शुद्ध रूप आप में ही छिपा है।

मनुष्य अपने मूल और स्वयं के शुद्ध रूप को नहीं जानता इसलिए वह ईश्वर के विभिन्न स्वरूपों में अपने शुद्ध रूप को देखने की कोशिश करता है। परंतु अपने शुद्ध रूप को देखने के लिए मनुष्य को स्वयं के अंदर जाना होगा। 

ज्ञान रूपी नेत्र से ही व्यक्ति को स्वयं का शुद्ध रूप उसे दिखाई देगा। क्योंकि आंखों पर अज्ञान का पर्दा चढ़ा हुआ है। इसलिए जीवात्मा का सच्चा स्वरूप जीवात्मा खुद ही नहीं देख पाता। जीवात्मा का जो सच्चा स्वरूप है वह स्वयं परमात्मा है। 

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जीवात्मा परमात्मा का ही अंग है। लेकिन अंग को अपने मूल स्वरूप का पता नहीं रहता।

भगवान के शुद्ध स्वरूप का दर्शन अर्जुन को नहीं हुआ क्योंकि अर्जुन के पास दिव्य नेत्र नहीं थे। दिव्य नेत्र प्राप्त होते ही व्यक्ति अपने शुद्ध स्वरूप को जान लेता है। जीवात्मा और परमात्मा एक रूप है। लेकिन इसी अज्ञान के कारण अलग अलग दिखाई देता है। जब व्यक्ति की आंतरिक शक्ति जागृत हो जाती है तो वह अपने शुद्ध स्वरूप को देखने में सक्षम हो जाता है।

श्री भगवान अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए अर्जुन से कहते हैं—

यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।

यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः॥ 

शब्द विग्रह — यत्नतः, योगिनः, च, एनाम्, पश्यन्ति, आत्मनि, अवस्थितम्, यत्नतः, अपि, अकृतात्मानः, न, एनम्, पश्यन्ति, अचेतसः॥

शब्दार्थ- यत्न करने वाले (यत्नतः), योगीजन भी (योगिनः), अपने हृदय में (आत्मनि), स्थित (अवस्थितम् ), इस आत्मा को (एनम्), तत्त्व से जानते - हैं (पश्यन्ति), किंतु (च), जिन्होंने अपने अंतःकरण को शुद्ध नहीं किया है, (ऐसे) (अकृतात्मानः), अज्ञानीजन (तो) (अचेतसः), यत्न करते रहने पर (यत्नतः), भी (अपि), इस आत्मा को (एनम्), नहीं जानते (न, पश्यन्ति)।

अर्थात- यत्न करने वाले योगी लोग अपने आप में स्थित इस परमात्म तत्त्व को अनुभव करते हैं, परंतु जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है, ऐसे अविवेकी मनुष्य यत्न करने पर भी इस तत्व का अनुभव नहीं कर रहे हैं कि जीवात्मा, परमात्मा से अविच्छिन्न है - वह चाहे शरीर त्यागता दिख रहा है, या शरीर ग्रहण करता अथवा भोगों को भोगता ही क्यों न दिख रहा हो। 

उसका परमात्मा से अलगाव एक क्षण को भी नहीं होता। इससे पूर्व के ही श्लोक में वे बोले थे कि जीवात्मा-परमात्मा की इस एकात्मता को अनुभव करने के लिए ज्ञानचक्षुओं की आवश्यकता होती है। चर्मचक्षुओं से इसे देख पाना व समझ पाना संभव नहीं है।


 

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