Published By:धर्म पुराण डेस्क

कुविद्या और भक्ति: एक आदर्श जीवन की ओर

समर्थ स्वामी ने अपने उपदेशों में कुविद्या या दुर्विद्या से युक्त व्यक्ति के लक्षणों का विवरण किया है और इन अवगुणों के परित्याग की महत्वपूर्णता पर चर्चा की है।

काम: यह एक अवगुण है जो व्यक्ति को आत्म-निग्रह में रुकावट डालता है। समर्थ स्वामी ने कहा है कि व्यक्ति को इस प्रवृत्ति को परित्याग करना चाहिए ताकि वह उद्दीपन और साधने में समर्थ हो सके।

क्रोध: यह एक और दुर्विद्या का लक्षण है जो व्यक्ति को आत्म-निग्रह में बाधित करता है। समर्थ स्वामी ने इसे छोड़कर सहिष्णुता और संतुलन की दिशा में आगे बढ़ने का सुझाव दिया है।

लोभ: यह भी एक अवगुण है जो व्यक्ति को आत्म-समर्पण में बाधित कर सकता है। समर्थ स्वामी ने इसे परित्याग करके अपने सामर्थ्य को सार्थक बनाने की आवश्यकता बताई है।

मोह: यह भ्रांति और अनवार्य आसक्ति का लक्षण है। इसे छोड़कर सच्ची ज्ञान और सत्य की दिशा में आगे बढ़ने का सुझाव दिया गया है।

अहंकार: यह एक और दुर्विद्या है जो व्यक्ति को अपने आत्मा की महत्वपूर्णता को भूलने के लिए प्रेरित कर सकती है। इसे परित्याग करके व्यक्ति को आत्म-समर्पण की दिशा में बढ़ने का सुझाव दिया गया है।

द्वेष: यह अवगुण भी व्यक्ति को आत्म-विकास में रुकावट डाल सकता है। इसे परित्याग करके सामंजस्य और सहानुभूति की ओर बढ़ने का सुझाव दिया गया है।

तृष्णा: यह व्यक्ति को संतुष्टि से दूर ले जाने वाली एक और दुर्विद्या है। समर्थ स्वामी ने इसे छोड़कर सही और सामर्थ्यपूर्ण दृष्टिकोण की ओर प्रवृत्ति करने का सुझाव दिया है।

ईर्ष्या: यह व्यक्ति को औरों की सफलता से जलने का कारण बना सकती है। समर्थ स्वामी ने इसे छोड़कर सादगी और उद्दीपन की दिशा में आगे बढ़ने की अपेक्षा की है।

अतृप्त वासना: यह एक और दुर्विद्या है जो व्यक्ति को आत्म-समर्पण में बाधित कर सकती है। समर्थ स्वामी ने इसे छोड़कर आत्म-संयम और संतुलन की ओर बढ़ने का सुझाव दिया है।

दुरभिमान: यह एक और अवगुण है जो व्यक्ति को आत्म-निग्रह में बाधित कर सकता है। समर्थ स्वामी ने इसे छोड़कर विनम्रता और सहिष्णुता की दिशा में आगे बढ़ने का सुझाव दिया है।

भक्त और भक्ति:

समर्थ स्वामी ने भक्ति और भक्ति की चर्चा करते हुए बताया है कि भाग्यशाली ही व्यक्ति प्रभु भक्ति कर सकता है। उनका कहना है कि पुण्य के कारण ही मानव-शरीर प्राप्त होता है और इसलिए इसे उद्दीपन और साधने में समर्थ होना चाहिए।

उन्होंने दूसरों के साथ संवाद में विशेष सतर्कता बरतने, अपने सामर्थ्य को सार्थक बनाने, और सच्ची भक्ति के मार्ग पर चलने का सुझाव दिया है। वह बताते हैं कि भक्ति में समर्थता होने पर ही व्यक्ति परमात्मा की उपासना कर सकता है और सच्चे मार्ग पर चल सकता है।

समर्थ स्वामी का यह उपदेश हमें अपने आत्मा को समझने, उसमें सुधार करने, और उच्चतम आदर्श जीवन की दिशा में बढ़ने के लिए प्रेरित करता है। इससे हम समृद्धि, शांति, और सामाजिक समृद्धि की ओर प्रगट हो सकते हैं।

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