Published By:धर्म पुराण डेस्क

ज्ञान से ही मुक्ति संभव है।

जो अपूर्ण है, वह स्वावलंबन की कामना कर ही नहीं सकता| 

हमारे भीतर जो मुक्ति का एवं स्वतंत्रता का वेग है, उसका स्पष्ट कारण यही है कि इसमें ऐसा तत्व प्रधान रूप से सजग है, जो पूर्णत: स्वतंत्र है। मुक्ति एवं स्वतंत्रता की तीव्र आकांक्षा उसी तत्त्व के हमारे भीतर रहने का प्रमाण है; किन्तु हम जो शारीरिक पराधीनता और असमर्थता पूर्ण दासता के शिकार हो जाते हैं वह इस बात का द्योतक है कि निर्माण की दृष्टि से हम पूर्णता तक नहीं पहुंचे हैं। 

जो अपूर्ण है, वह स्वावलंबन की कामना कर ही नहीं सकता। उसे सदा दूसरों की ओर ही देखना होगा। प्रकृति का निर्माणात्मक कार्य अभी पूर्ण वेग से गतिशील है और हम भी विकासात्मक अवस्था के भीतर ही हैं। जिस अंश तक हम अपूर्ण, दुर्बल और पराधीन हैं, उस अंश तक हम दास ओर उससे भी गिरे हुवे हैं । 

यह भी सोचना है कि जिसने अविद्या के कारण शरीर और आत्मा के भेद को सही-सही जानकर अपने को आत्मस्थ नहीं किया वह शरीर अनुरागी है। शरीर अनुरागी होने का अर्थ है कायानुपश्यी बन जाना तथा इस शरीर को ही सब कुछ मान बैठना। ऐसे को 'आत्मघ्न' कहा जाता है। ये आत्मघ्न सदा पराधीन तो रहते ही हैं तथा अपने भीतर की शक्तियों का भी सम्यक पोषण नहीं कर पाते। 

अपूर्ण जगत और शरीर पर आश्रित होने का परिणाम है पराश्रित रहना, क्योंकि जहाँ अपूर्णता है, वहीँ निर्बलता है पर जहाँ निर्बलता है वहीं दूसरों की अपेक्षा है--

'नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो। 

मेधया न बहुना श्रुतेन॥'

यह आत्मा न तो प्रवचन से प्राप्त होता है और न बुद्धि से तथा न शास्त्रों के लगातार श्रवण से ही उपलब्ध होता है। अंतत: यह आत्मा कैसे प्राप्त होता है? इसी मंत्र में आगे स्पष्ट किया गया है- 

'यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष। 

आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥' 

अर्थात जो इस आत्मा को स्वीकार करता है उसे ही प्राप्त होता है। उसके लिए अपना स्वरूप प्रकट करता है। आत्म-चेतना में ही नैतिक स्वतंत्रता निहित है, न कि कायापश्यी बन जाने में।

मानव अन्य पशुओं से उच्च है, क्योंकि वह अपने विषय में सोच पाता है। अपने को सही- सही जानना यह बहुत बड़ी साधना है। वस्तुत: वह है क्या? इसका बोध होना ही 'आत्म- बोध' है। भ्रान्ति रहित बोध को ही 'आत्मस्थ' कहा जाता है। क्षण स्थायी शरीर से भिन्न अपनी शाश्वत स्थिति का जब हमें पूर्ण ज्ञान हो जाता है तब हम बाहर की पराधीनता और भीतर के बन्धनों से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। 

आंतरिक मुक्ति का जब बाह्य प्रकटीकरण होता है तब हमें सच्ची स्वतंत्रता का दर्शन होता है , जो अमृत - तुल्य है। वास्तव में बाह्य स्वतंत्रता की पूर्णता आंतरिक मुक्ति पर निर्भर करती है और जब तक शुद्ध ज्ञान का उदय नहीं होता तब तक आंतरिक मुक्ति किसी भी अन्य उपाय से संभव नहीं है। 

बिना अंतर की मुक्ति के बाहर की स्वतंत्रता फलप्रद हो हो नहीं सकती। मानव या तो आत्मनिष्ठ रहे या भोगनिष्ठ बने, जिस अंश तक वह आत्मनिष्ठ नहीं है, उसी अंश तक वह भोगनिष्ठ है। यदि हम पूर्णत: आत्मनिष्ठ नहीं हैं तो हमारा जीवन- क्रम पशुत्व की ओर ही विकास करने लगेगा।

जीवन द्रव्य के समान है, द्रव्य पर क्रिया का जैसा कर्म होगा उसका भविष्य भी वैसा ही बनता जायेगा। इसी प्रकार भोगनिष्ठ जीवन पर किया कर्म 'पशु' बनने का है। तो किसी भी रूप में यह स्वीकार नहीं किया जा सकता कि वह अंत में 'देवता' बन जायेगा। इसलिए गीता में कहा गया है कि - अपना उद्धार अपने आप ही करें, अपने को कभी भी गिरने न दें। क्योंकि स्वयं मानव अपना बन्धु भी है और शत्रु भी है। जिसने अपने आप को जीत लिया, वह स्वयं अपना बन्धु है, परन्तु जो अपने आप को नहीं पहचानता वह स्वयं अपना शत्रु है-- 

"उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्। 

आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥" 

इस स्वतंत्रता एवं मुक्ति के लिए शुद्ध ज्ञान की आवश्यकता है और उस ज्ञान को जीवन के प्रत्येक स्पंदन में प्रतिबिंबित होना चाहिए न कि केवल वाचक- ज्ञान अथवा मौखिक ज्ञान में। यजुर्वेद के अनुसार जो अज्ञान की उपासना एवं अविद्या का सेवन करते हैं वे तो घोर तम में प्रवेश करते ही हैं और जो कोरे ज्ञान में रत हैं वे भी घनघोर अंधकार में पड़ जाते हैं - 

"अन्धन्तम: प्रविशन्ति येअविद्यामुपासते। 

ततो भूय ते तमो य उ विद्यायां रता:॥" 

ज्ञान और अज्ञान का भेद करके ऋषि ने समझाया है। अविद्या से मृत्यु प्राप्त होती है और विद्या तो साक्षात् अमृत है ही। 

यजुर्वेद के अनुसार -- 

"विद्यां चाविद्यां च यस्त्द्वेदो भयम् सह। 

अविद्यया मृत्युं तीर्त्वा विद्यया अमृतमश्नुते॥" 

ज्ञान और अज्ञान, विद्या और अविद्या अमृत एवं मृत्यु कहा गया है। अज्ञान- ग्रस्त रह कर मुक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। मुक्ति तो भीतर से उभरती है और हमारे सम्पूर्ण जीवन को अपने विस्तार के भीतर ले लेती है। 

यह मुक्ति ज्ञान का उदय है और इसका फल है अज्ञान का पूर्णत: नाश। जिस अंश तक हम ज्ञान - आश्रित हैं उसी अंश तक मुक्त हैं, जिस अंश तक अज्ञान - ग्रस्त हैं उसी अंश तक बन्धनों में पड़े हैं। पूर्ण ज्ञानाश्रयी होने का अर्थ है पूर्ण मुक्त हो जाना; भीतर से भी मुक्त और बाहर से भी मुक्त। अस्तु, ज्ञान से ही मुक्ति संभव है। 

VIDYALANKAR


 

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